Wednesday, 30 November 2011

"बचपन"

                        "बचपन"
कृति : जीतेन्द्र गुप्ता

हमने कभी नहीं सोचा  था , इतना याद वो आएगा
उसका एक एक दिन हमको यूँ  तड़पायेगा 
दोस्तों से छीनकर खाना , अमृत स्वाद दिलाएगा
अब तो हरदम यही सोचते ,वो बचपन कब आएगा ?
माँ की लोरी की मिठास और पापा की झूठी  डाट 
लड्डू चुरा चुराकर  खाना और बहाने वो बकवास
अब तो मीठे से परहेज जैसे हो अपना उपवास
हम इतने क्यों  बड़े हो गए , अपना बचपन था झक्कास
न थी फ़िक्र किसी की न थी झूठे status की शान
 चड्ढी पहन के  फूल खिला है, हम तो थे मोगली महान
कंचा ,टिक्का, गिल्ली-डंडा ये सब तो थे अपनी जान
ये तो है एक परम सत्य की अपना बचपन था महान 
बचपन की वो मीठी यादें हमको जान से प्यारी है
भागदौड के इस जहाँ में इन्ही से अपनी यारी है
लोगो की झूटी उम्मीदे अब तो जान पे भारी है
आओ फिर से लौट चलें हम वो खुशियाँ ही हमारी हैं|

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