Wednesday 25 January 2012

बेबसी

" बेबसी "
 कृति : भरत नायक


काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|
हर बारिश की बूंदें लाती है पैगाम मेरे आने का पर दुःख  है मुझे तुमसे नही मिल पाने का.
काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|
मेरे  सात रंग छूते तेरे नीले नैनों को तो तुम न तरसती मुझसे मिलने को.
सूरज की किरणे करती हैं हर रोज तेरा दीदार पर मैं रह जाता हूं प्यासा हर बार.
काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|
जब जब सूरज की किरणे तुम्हें छूती हैं,न जाने क्यों मेरे दिल मैं एक कसक सी उठती हैं.
तब मेरा मायूस मन मेरे दिल को समझाता है,क्यां हुआ रोज तू रोज सागर से नही मिल पाता हैं............क्यां हुआ जो तू रोज सागर से नही मिल पाता हैं....
काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|

गुरुजनों से कुछ प्रश्न



कृति -'जीतेन्द्र गुप्ता '

ऐ मार्गदर्शक संसार के ,हुआ क्या है आज तुझे |
हम हैं बच्चे आपके , एक प्रश्न तुमसे पूछते |
चिर निराशा के भंवर में रौशनी थे तुम कभी|
जन्मदाता से भी बढकर प्यार करते थे कभी|
छात्रों के हित की हरदम बात तुम थे सोचते|
जब भी गलती होती हमसे प्यार से तुम टोकते |
होता न अर्जुन कहीं होते न द्रोणाचार्य जो|
ऐसे द्रोणाचार्यों को नमन बारम्बार हो|
क्यों रुठा है आज तू ,इतना तो हमको दे बता |
हमने कर डाली क्या कोई क्षमा न होती खता |
जिस गुरु ने दी थी शिक्षा मौत से न डरने की |
उस गुरु को देखकर क्यों होश उड़ जाते अभी |
बात करने में भी हम डरने लगे हैं आपसे |
होगा कैसे शंका का हल गर न बोलें नाथ से |
जिंदगी के मूल्यों को मत गिरा मेरे प्रभू |
बिन तेरे हम बेसहारा अनाथ हैं मेरे गुरु |
देख न हमको तू ऐसे ,हम नही दुश्मन तेरे |
हमको है तेरी जरूरत तू है दुखहर्ता मेरे |
तू गुरु है तू प्रभू है तुझको ही है सोचना |
सुनहरे भविष्य की खातिर है बीज तुझको रोपना |
सोने की चिड़िया बना दे ऐसा तू पारस बना |
इन्द्रियों को जीत ले जो ऐसे जितेन्द्रिय बना||

Saturday 21 January 2012

'प्यार का दूसरा पहलू'


'प्यार का दूसरा पहलू'
कृति-'जीतेन्द्र गुप्ता'

जब दिल ये उदास होता है, एक तेज कसक सी उठती है|
वो  खट्टी  मीठी  यादें, बड़ी  तेज  हृदय  में चुभती है|
ये शीतलहर की है ठंडक और है ये बदन रजाई बिन
इस प्रेमभंवर में फसते ही मौत है आ गई बुलाए बिन|
कितना समझाया इस दिल को पर ना माना ये रत्ती भर,
कितना रोका इन अश्को को पर बह आये ये गालों पर|
कितना मासूम था दिल मेरा तूने क्यों इसको तोड़ दिया,
जैसे तपते सूरज के नीचे सहारा मरु में छोड़ दिया|
कितना खुश था मैं दुनिया में क्यों दुःख से नाता जोड़ दिया|
कितना चंचल भंवरा था मैं ,पंख तूने क्यों मेरा तोड़ दिया|
एक साफ़ स्वच्छ मष्तक को क्यों इतना तगड़ा नासूर दिया|
एक भोले भाले मानुष को यूं बीच भवंर में छोड़ दिया|
क्यों सपने झूठे दिखलाए जब उनमें आग लगानी थी,
क्यों बहलाया मुझको झूठे जब आखिर लाश उठानी थी||
एक सलाह -
" इस प्रेमभंवर में मत पड़ना , जीते जी नरक भुगा देगा 
 भोली सूरत पर मत पड़ना , जीवन को नरक बना देगा "  

नम्र निवेदन

नम्र निवेदन

एक नम्र निवेदन है तुमसे,
सुन लो पुकार इस धडकन की|
क्या तुम्हे शिकायत थी मुझसे?
जो दर्द दिया इस पागल को|

दिल के इक छोटे से कोने पर,
अधिकार तुम्हारा था शायद|
याद तुम्ही को करने की
हो गयी थी मुझको तब आदत|

भूलने के इस सतत प्रयास में,
याद तुम्हारी ही आती है|
अब तो बस तन्हाई के सहारे,
दिन और राते कट जाती है|

खैर मेरी फ़िक्र तुम छोडो,
दीवानों का तो ऐसा ही हश्र होता है
ना चाह कर भी याद करना,
नासमझ दिल तो हँस हँस कर रोता है||

Thursday 19 January 2012

"देशद्रोही आज के"

"देशद्रोही आज के"
कृति-मोहित पाण्डेय"ओम" (Mohit Pandey)

देखो ये कैसे हालात आ रहे है,
मानव हुए दानव खुद को सता रहे है|
खादी की पैबस्त में देश को लूटा,
अब गाँधी नाम को भी बदनाम कर रहे है|

गाँधी तो वो था जो एक पतलून में रहता था,
पर ये देशद्रोही भ्रष्ट जामा पहन रहे है|
वो महात्मा सत्य-अहिंसा का पुजारी था,
पर ये दुष्ट मजहबी विभाजन करा रहे है|

ठण्ड में ठिठुरता गरीब देश पर रोता है,
कि ये मेरा पैसा स्विस में खुद के नाम कर रहे है|
देश के सिपाही सीमा में जान गवाते है,
जमाई बने कसब जैसे यह मौजे मना रहे है|

हम शान से कहते है देश हमारा है,
लेकिन यहाँ शासन विदेशी चला रहे है|
हम जानते है एक दिन ये देश बेंच देंगे,
फिर भी क्यों उन पर मुहरें लगा रहे है|

आज भी कुछ बिगड़ा नहीं,
सब होशो-हवाश में आओ|
सभी मजहबी मिल कर खड़े हो,
फिर भारत माँ के नारे लगाओ|

सपूत भारती के हममे है दम,
अब देश के दुश्मनों को बताओ|
शिकस्त हार देकर इन्हें,
अपनी मात्र-भूमि से खदेडकर भगाओ|

Monday 16 January 2012

खुशी के रंग

खुशी के रंग

कृति: Jagesh Jags

रंग  रंग में रंग जायेगा रंगों की दुनिया में,
रंगीली डुबकिय रंगों के दरिया में,
रंगों के बिच रंगीन भंवर में 
गर कही ,रंग मेरा, रंगत मेरी 
रंग रंगीली हरकत मेरी 
रंग न पाई रंगों से तो 
रंग कही ये उड़ न जाये
उन रंगीन आँखों से 
आँखों का रंग , रंग नहीं है 
रंगों का सैलाब भरा 
रंग बड़ा रंगीन है ये रंगों के सागर से बना 
रंगना मुझको बहुत अभी है ,
उन आँखों को रंगने के लिए 
एक रंग फिर ऐसा भी हो 
रंग  रंगीली आँखों को जब,
भायेगा ये रंग मेरा
तब होगी रंगीन रंगीन दुनिया 
रंग रंग से भरी हुई, कई रंगों से सजी हुई
उन आँखों में भी रंग दिखेंगे
होगी खुशिया भी रमी हुई.

Friday 13 January 2012

भ्रूण हत्या: एक अभिशाप

भ्रूण हत्या: एक अभिशाप 
कृति:
मोहित पाण्डेय "ओम" (Mohit Pandey)

हे जननी दोष क्या था उस अबोध का?      
जो जन्म उसे ना लेने दिया|
करुनामयी ममता की मूरत तू,
फिर भी क्यों उसको मार दिया?

ऐसी भी क्या विपत पड़ी?
जो खुद के खून का क़त्ल किया|
कोख में पलकर उसने भी कुछ सपने देखे होंगे,
फिर क्यों उसको अपने सपनो में रंग न तुमने भरने दिया?

 बेटे की चाह में अंधी होकर,
 खुद अपनी बेटी को मार दिया|
जितनी सेवा बेटा कर न सका,
बेटी उससे ज्यादा कर पायी है|

बेटी खुद होकर भी तू,
खुद बेटी को समझ ना पाई है|
तुमने शायद सोचा होगा,
बेटी आई तो बड़ी मुसीबत आएगी|
पर तुमने ये क्यों ना सोचा,
बिन बेटी स्रष्टि कैसे चल पायेगी?