Thursday 22 November 2012

शहीदों को समर्पित एक कविता ...


एक दिन कलम ने आके चुपके से मुझसे ये राज खोला ,
कि रात को भगत सिंह ने सपने में आकर उससे बोला,

कहाँ गया वो मेरा इन्कलाब कहाँ गया वो बसंती चोला ?
कहाँ गया मेरा फेंका हुआ, मेरे बम का वो गोला ?

आत्मा ने भगत के आकर कहा , ये देख के हम बहुत शर्मिंदा हैं,
कि देश देखो आज जल रहा है,और जवान यहाँ अभी भी जिन्दा हैं ??

देख के वो रो पड़ा इस देश की अंधी जवानी ,
क्या हुआ इस देश को जहाँ खून बहा था जैसे हो पानी ,

खो गया लगता जवान आज जैसे शराब में ,
खो गया आदतों में उन्ही , जो आते हैं खराब में ,

कीमतें कितनी चुकाई थी हमने, ये तो सब ही जानते हैं
तो फिर इस देश को हम आज , क्यूँ नही अपना मानते हैं ?

देश के संसद पे आके वो फेंक के बम जाते हैं ,
और खुदगर्जी में हम सब उन्हें अपना मेहमां बनाते हैं ,

भूल गये हो क्या नारा तुम अब इन्कलाब का ???
जो पत्थरों के बदले में भी थमाते हो फुल तुम गुलाब का ?

मानने को मान लेता मानना गर होता उसे ,
जान लेता हमारे इरादे गर जानना होता उसे ,

आँखों में आंसू आ गया, देख के अब ये जमाना ,
लगता है आज बर्बाद अब , हमको अपना फांसी लगाना ,

ऐ जवां तुम जाग जाओ तुम्हे देश ये बचाना होगा ,
आज आजाद और भगत बन के तुम्हे ही आगे आना होगा

ऐ जवां तुम्हे नहीं खबर ,कि जब-जब चुप हम हो जाते हैं
देश के दुश्मन हमे तब-तब, नपुंसक कह- कह कर के बुलाते हैं,

उठो और लिख दो आज फिर से, कुछ और कहानियाँ ,
कह दो जिन्दा हैं अभी हम और सोयी हैं नही जवानियाँ,

गर लगी हो जवानी में, जंग, तो हमसे तुम ये बताओ ,
या खून में उबाल हो ना , तो भी बस हमसे सुनाओ,

एक बार फिर से हम इस मिटटी के लाल बन के आयंगे ,
एक बार इस देश को अपनों के ही गुलामी से हम बचायेंगे ,

नारा इन्कलाब का हम फिर से आज लगायेंगे ..
पर ये सवाल हम आप से फिर भी बार-बार दुहराएंगे,

कि आखिर कब तक ?? आखिर कब तक ?
इस देश के जवां कमजोर और बुझदिल कहलाते जायंगे.....
इसको बचाने खातिर कब, तक भगत सिंह और आजाद यहाँ पर आयंगे ???
 
Rajeev Kumar Pandey " Mahir "

Tuesday 20 November 2012

क्या तुमने ऐसा अधम कुकृत्य किया होता ???


कल शहर के राह  पर मैंने भीड़ देखा था ,
जहाँ एक नवजात कन्या को उसकी माँ ने फेंका था ,

मै बेबस था चुपचाप था बहुत परेशान था ,

मै उस नवजात की माँ की ममता पे बहुत हैरान था  , 


मै कुछ नही कह सकता था उस भीड़ से , क्युं कि मै भी एक इंसान था ,

पर क्या उस कुछ देर पहले जन्मी बच्ची  का नही कोई भगवान था ?? 


क्या उस माँ की कोख ने उस माँ को नही धिक्कारा होगा  ?

क्या उस नवजात की चीख ने उस माँ को नही पुकारा होगा ? 


आखिर क्यूँ जननी काली  से कलंकिनी  बन जाती है ? 

जन्मती है कोख से और फिर क्यूँ कूड़े पे फेंक आती है ? 


गर है ये एक पाप , तो क्यूँ माँ करती है उस पाप को ?

क्या शर्म नही आती उस बच्ची के कलंक कंस रूपी के बाप को ? 


बिलखते हैं, चीखते हैं मांगते हैं रो-रो कर भगवान से ,

जो की दूर हैं एक भी संतान से , 

  उस नवजात को मारने  की वजह बढती हुई दहेज तो नही ?
 कुछ बिकी हुई जमीरों के लिए लकड़ियों की कुर्सी मेज तो नही ?

कुछ बिके हुए समाज के सोच की  नग्नता का धधकता तेज तो नही ?

 इस नवजात की मौत की वजह  किसी के हवस की शिकार सेज तो नही ? 

बस एक बात पूछता हूँ उस समाज से , उस माँ से ,और उस भगवान से

क्यूँ खेलते हों मूक  निर्जीव सी नन्ही सी जान से  ?? 


आखिर क्यूँ मानवता पे यूँ गिरी है ये गाज ?

जिस माँ ने फेंका था उस नवजात को, उसी माँ से पूछना चाहता हूँ मै  आज ..  


क्या तुमने ऐसा अधम कुकृत्य किया होता ?

अगर तुम्हारी माँ ने भी तुम्हे अपने कोख से निकाल फेंक दिया होता ??????? 

Rajeev Kumar Pandey " Mahir "

Tuesday 30 October 2012

तुम साथ होते तो अच्छा होता

हमें मोहब्बत करना सिखा तो दिया,
साथ निभाना तुम भी सीख जाते,
तो अच्छा होता|

तुम्हारे गम ने दर्द तो बहुत दिया,
थोडा सा बाँट ही लेते,
तो अच्छा होता|

तुम्हारा नाम लेके बदनाम मै हुआ,
थोडा तुम भी हो लेते,
तो अच्छा होता|

हमें पीने को जहर दे तो दिया,
तुम पिला भी देते,
तो अच्छा होता|

जिंदगी भर का दर्द साथ ले लिया,
काश!!! तुम साथ होते,
तो अच्छा होता|||

Sunday 2 September 2012

इन्सान

कृति -'जीतेन्द्र गुप्ता '

वक़्त की करवट में इन्सान बदल जाते हैं
हवा के एक झोंके में तूफान बदल जाते हैं
कभी फुरसत मिले तो सोचना ऐ दोस्त
मुश्किलों के थपेड़े तुम्हें कहाँ लिए जाते हैं ||
बनने को सोचा था क्या और बन गए हो क्या?
ऐसे ही नजाकत से क्या ईमान बदल जाते हैं?
बदले न खुद को जो जब लाख मुश्किलें आएँ
ऐसे ही इन्सान तो भगवान कहे जाते हैं ||
सह सके न वक्त की  जो जरा सी भी गर्दिश
ऐसे बुजदिल भी क्या इन्सान कहे जाते हैं|
रोते हैं इन्सान जो हरदम अपनी किस्मत को
ऐसे ही इन्सान तो बेकाम कहे जाते हैं ||
झेले चुनौतियों की आग को जो बिना डरे
कूद पड़े शोलों में कदम जिसके बिना थमे
ऐसे ही इन्सान तो फौलाद कहे जाते हैं |
सच्चा है इन्सान वो जो झेले गर्दिश सबकी
करता है जो काम वो बन जाता है मर्जी रब की ||
वरना हम इन्सान तो इक माटी के पुतले हैं |
बिना जोश के जो  बेजान कहे जाते हैं ||

Friday 17 August 2012

::मदिरा-मय मस्त मगन बूंदे:: एक प्रेमी का मदिरा से वार्तालाप


कृति -- मोहित पाण्डेय"ओम "

इस रचना में मैंने एक प्रेमी और मदिरा के बीच हुए वार्तालाप को पिरोया
है| जब एक प्रेमिका अपने प्रेमी को
अपनी सहेली की हाथो ये संदेश भेजती है की अब उन दोनों के बीच सब कुछ खत्म
हो गया है,उसे अब उसकी जरुरत नहीं रही क्यूकि उससे अच्छा एक रिश्ता उसके
लिए आया है| वो उसे भूल जाये|
ऐसा पढकर उसका पूरा तन बदन सुन्न हो गया, वो खो गया उन पुरानी यादो में
जिनमे उन दोनो ने कभी साथ निभाने और संग जीने-मरने कि कसमें खायी थी,
आखिर एक पल में वो सारी कसमें झूठी वो गयी|
क्या उसका प्यार एक फरेब था?
पुरानी यादो की हिलोरो को अपने जेहन में समेटे हुए वो मैखाने की तरफ चल
पड़ता है| साकी से जाम लाने के लिए कहता है|
"साकी अब तो मान ले, या मनवा कि बात|
जी भर जाम पिलाय दे, जागूँ पूरी रात || "
साकी ने जाम भरकर रख दिया है, अब मदिरा और उसका वार्तालाप शुरू होता है|

 
ये कैसा नशा मुझ पर  छाया,
 जो न पिया अपने अधरों से |
 होश-हवाश सुध-बुध खो बैठे,
 इस मधुर पान की प्याली से||१ 

   धूम्रपान  और  मधपान  हम, 
 सुनते   आये   थे   कानो  से |
 छलक रही प्याली मदिरा की,
 हमने  न  लगाया  अधरों से ||२

 फिर  भी कैसा  नशा हुआ  है,
 हुए  आज  हम  मतवारे  से |
 मदिरा-मय मस्त मगन बूंदे,
 करती  है निवेदन अधरों से ||३

  प्यारे खुद को   सिंचित कर ले,
प्यारी  मदिरा  की  सरिता से |
अपने गमो को कर दे प्रवाहित,
चंचल   मतवाली   लहरों   से ||४

ये जो नशा है तुम पर छाया,
पाया   तुमने   हरजाई   से |
वफ़ा  के  बदले   पाया  क्या,
तू  तड़प  उठा  बेवफाई  से ||५ 

                                                       बस आज तू मुझको अपना बना ले,
हर   लूँगी   व्यथा   एक  प्याली  से |
साथ     न    तेरा     मैं       छोडूँगी ,
वादा है रक्त-चमक मद-छलको से||६

मदिरा-मय मस्त मगन बूंदे,
करती है  निवेदन  अधरों से||

                                                          साथ   में   लेकर   अपने   चलना,
खेलेंगे    चिता    की    लपटों  से |
 दिल की 'छवि' में मुझको बसा ले,
 भर   दूंगी   दमन   खुशियों   से ||७

सुनकर दिल ने कड़क लगाई,
रिश्ता   है   तेरा   मैखाने   से|
दिल  न  लगाना  तुम  हमसे,
हम      दीवाने     है    उसके ||८ 

                                                              दिल में तो वो 'छवि' बसी है,
जगह   न   तू   ले   पायेगी |
 जी-जान से   कोशिश करले, 
  तू न भ्रमित हमें कर पायेगी||९


वो      अमृत     का     सागर    है,
विष   से   है   भरी   तेरी   प्याली|
वो पूनम के निशा सी उज्जवल है,
तू   मावस   की घोर   घटा  काली||१० 

                                                            तू  रक्त-तप्त डूबे   सूरज सी,
वो   उगते   भानु   की   लाली |
 गर  तू   दुःख   को  मिटाती  है,
 खुशियों  से भरी  वो हरियाली||११

माना की  खफा है वो  हमसे,
दूर   न  ज्यादा   रह   पाएंगे|
दौड़े    आएंगे    एक     दिन,
फिर  दिल  से हमें  लगाएंगे ||१२ 

                                                              उनकी अनुपस्थति में हम,
 सौतन से दिल न  लगाएंगे|
ऐसा अधरम  करके    हम, 
       खुद  की  नजरों में गिर जायेंगे||१३

प्यारी   मोहक    मन-मादक,
मदिरा  ने सुने जब प्रत्युत्तर|
सभी    यहाँ    दीवाने    उसके,
आँखों में सभी की मद-लाली||१४ 

                                                            ये कैसा  शख्स यहा पर आया,
क्रोध से  रक्तिम मद  प्याली|
तीक्ष्ण  नयन  अरु   मंदहास ,
कर्कश ध्वनि में मदिरा बोली||१५

तू  कितने भी  अश्रु  बहा ले,
याद  उसे  न  अब  आयेगी |
जीवन भर तू आस  लगा ले,
वो  न  वापस  अब आयेगी ||१६ 

ऐसी     उम्मीद      तुझे     न    थी,
वो दिल के इतने टुकड़े कर डालेगी|
दामन   थाम   किसी   जालिम  का,
जला-जला       तुझको      मारेगी ||१७

प्यार    के   सागर  में      तुमने,
गोते       बहुत       लगाएँ     थे |
जिन-जिन  को  अपना  समझा,
सब  दिल में शोले भरने आए थें||१८ 

कैसा   जहर    उसने    दे    डाला,
आँखों से अब तक निकल रहा है |
याद     उसे     कर-करके     क्यों,
हर   पल  खुद  को  जला  रहा है ||१९

दिल के दर्पण में देखो तो,
उसकी 'छवि' ही प्रतिबिंबित है |
मन-मानस में जो फूल खिले है,
सब मेरे नयनों से सिंचित है ||२० 

                                                            हमने किसी का क्या बिगाड़ा,
                                                            ये कैसी सजा अब मिल रही है |
                                                             जिसने हमारा हाथ थामा, 
                                                             अब वो रेत बनकर दूर हमसे हो रही है ||२१

मै कैसे तुमको खुद में बसा लूँ,
कैसे तुम्हे अपना बना लूँ |
इस दिल में जब चिंगारी उठी है,
कैसे अब उसको बुझा दूँ ||२२ 

                                                             मै नागमणि था, अब मणि 
                                                             क्यूँ दूर जाना चाहती है |
                                                             निस्तेज विषधर को अभी भी,
                                                             क्यूँ तू सोमरस पिलाना चाहती है ||२३ 




मदिरा-मय मस्त मगन बूंदे,
करती है निवेदन अधरों से|
................शेष जल्द ही ..

Thursday 16 August 2012

भारत माता की पुकार

कृति 'जीतेन्द्र गुप्ता '
बेकारी के आलम में ,लगता है हम भी खो जाएँ
रहने दें दुनिया जैसी है, दुनिया से बेसुध हो जाएँ |
बड़े कंटक हैं हर पग -पग में, इस जग सुधार के मारग पर
बड़े संकट हैं इस भारत में, हर दिल में बसा है भ्रष्टाचार
खड़े विषधर  है हर चौखट पर, कह रहे हैं वो ये पुकार पुकार
हम भले जगत से मिट जाएँ, मिटने ना देंगे भ्रष्टाचार ||
कहती है भारत माँ प्यारी, तुम हो मेरे कैसे सपूत !
जो बेच रहे हो खुद माँ को, अब तो सुधारों काले कपूत|
प्रण लो प्यारों अब इसी वक्त, खोया गौरव तुम लाओगे
बिलख रही है माँ प्यारी, इसे भ्रष्टाचार मुक्त कराओगे
यह ही है जननी हम सबकी, इसे जगद्गुरु तुम बनाओगे||

Tuesday 14 August 2012

"ये दिल काँच का टूटा"

कृति - मोहित पाण्डेय"ओम"

इतना टूटा हूँ मैं , न अब कोई तोड़ पायेगा |
ये दिल काँच का टूटा, जिसे न कोई जोड़ पायेगा ||
कितनी भी कोशिशें, कोई भी अब तो कर ले|
बर्बाद रास्तों से हमें, न कोई मोड पायेगा ||

हमनें कभी न सोचा, ऐसा भी वक़्त आयेगा |
जो मुझको अपना कहता था, गैरों का हो जायेगा ||
कितनी बड़ी थी साजिश, जिसे हम समझ न पायें||
ये जो तूफां है मेरे दिल में, यें कही कहर ढाएगा||

मेरा दिल तो जल रहा है, वो यादों में कभी जलेगा |
जिन्दा था अब तलक मै, अब कोई मारने को आयेगा ||
सब लोग कल तो आना, मातम मनेगा मेरा |
मेरी मौत पे वो हंसकर, गैरो के संग जश्न मनाएगा ||

इतना टूटा हूँ मैं , न अब कोई तोड़ पायेगा |
ये दिल काँच का टूटा, जिसे न कोई जोड़ पायेगा ||

Monday 6 August 2012

“निवेदन”

कृति- जीतेंद्र गुप्ता


एक छोटी सी बच्ची देखी

भोली सी उसकी सूरत थी

आँखों में उसके सपने थे

लगते जो उसके अपने थे

घर में सबकी दुलारी थी

लगती सबको प्यारी थी ||

पर उससे रब रुठ गया
उसका सबकुछ लूट गया

एक हवा का झोंका आया

माँ बाप का दामन छूट गया ||

फिर से उस बच्ची को देखा

मलिन सी उसकी सूरत थी

ना ही आँखों में सपने थे

ना कोई उसके कोई अपने थे ||

कौन उसे अब अपनाएगा

उसका अपना बन पाएगा |

मेरी एक अपील है भाई

दिल से जानो एक सच्चाई

जिन्हें नही पैसे का लोभ

ऐसे दुनिया में कम लोग

उनसे जीतेन्द्र का निवेदन है भाई

ब्याह लाओ ऐसी लुगाई

जिसके नहीं  है बाप - मताई ||

Saturday 4 August 2012

हाइकु, लिखने की एक कोशिश

कृति- मोहित पाण्डेय"ओम"

१. शीशा तोड़ दे ...
ये उनकी अदा है...
जख्म देने की ....


२. तेज धूप है...
सूरज जवान है....
फिर बारिश ....

३. रो रहा होगा..
दिल टूटने पर ...
ये आसमान ....


४. दंगा फसाद...
इंसानियत मरी
नेता का काम .....

५. तू डर गया?
बाजू में दम नहीं ?
है शिकश्त दे....

Thursday 2 August 2012

"हँसने की कोशिश करते है"

कृति -- मोहित पाण्डेय"ओम"


गम के सागर में डूबे रहते है,
फिर भी हँसने की कोशिश करते है|
ये जमाना अगर हमसे रूठे भी तो,
हम तो अपने ही जलवे में रहते है ||

उनको नफरत है हमसे तो हम क्या करे,
हम तो अब भी मोहब्बत करते है |
कोई पागल कहे, आवारा कहे,
उनकी गलियों में जाया करते है||

तुम दीवानों की बातें मत करना,
वो तो मर के भी जिन्दा रहते है|
कभी उसने हमें अपना माना था,
हम तो अपनों को दिल में रखते है||

है वो पागल जो गैरो पे मरते है,
हम तो अपनों कि खातिर जीते है|
मेरी आँखों में आँसू रहते है,
फिर भी हँसने की कोशिश करते है||
गम के सागर में डूबे रहते है ...........

Wednesday 25 July 2012

भूले-बिसरे

मोहित पाण्डेय "ओम"

१.    जिंदगी को जिस तरह हमने जिया, 
       शायद ही कोई शक्सियत जी पायेगी |
       उनके होंठों से जाम हमने पिया ,
       हमें न अब कोई दूजी जाम भाएगी ||

       वो तो चले गए हमें मदहोश करके,
       मगर उनसे जुदाई और गम-ए-उल्फत में ये जान चली जायेगी|
       मगर अफ़सोस, तब ये मदहोशी हमेशा की हो जायेगी |
       गर फक्र है, कभी हमारी भी इश्क-ए-दास्ताँ इबारत पढ़ी जायेगी ||

२.    इतना मत सताओ हमें, हम तेरा शहर छोड़ जायेंगे |
       जान मांग कर के तो देख, तेरी ही चौखट पे दम तोड़ जायेंगे|
       दीवाने तो मरते ही है यहाँ, पर हम अपनी आशिकी की एक मिशाल छोड़ जायेंगे |
       फिर अपनी मोहब्बत का इजहार मत करना, क्यों कि कब्र में दफ़न हम दिल्लगी कर न पाएंगे 

३.    सोचा था मुहब्बत न करेंगे, क्यों कि इसमें दर्द-ए-सुरूर होता है|
       फिर दिल ने आवाज दी लगा ले दिल, बिना दिल्लगी के कौन यहाँ मशहूर होता है||

Thursday 5 July 2012

"जिंदगी अंगार की है, फिर भी तो हम जी रहे है"

कृति- मोहित पाण्डेय "ओम"

जिंदगी निष्ठुर है कितनी,
फिर भी तो हम जी रहे है |
अश्कों के सागर में डूबे,
आब-ए-तल्ख़ पी रहे है ||

उसने दिखाए थे जो सपने,
झूठ थे सब खल रहे है |
क्या निगाह थी उस हँसीं निगार की,
तसब्बुर में जिनके हम आजिज से हो रहे है||

कैसे बुझायें दिल की आतिश,
हर पल जो हम खुद जल रहे है |
अश्कों को अपने पी के खुद,
मन की आतिश बुझा रहे है||

कैसे भुलाएं वो कहानी,
जो जुबानी लिख रहे है |
प्रेम की ज्वाला थी तब,
अब तो हिम खुद बन रहे है ||

जिंदगी अंगार की है,
फिर भी तो हम जी रहे है||

Thursday 31 May 2012

"फिर से-लंबी रातें उसकी यादें"

"फिर से-लंबी रातें उसकी यादें"

कृति- मोहित पाण्डेय"ओम"

फिर से आज एकाकीपन है,
फिर से रोया ये तन मन है|
फिर  से   रात  नहीं  गुजरी,
यादो  से आंखे फिर नम है||

फिर से मैं खुद को भूल गया,
उन  लम्हों में फिर डूब गया|
फिर से मैं  इतना  टूट  गया, 
वो शक्स हमें फिर लूट गया||

फिर  से  ये  रात  सुहानी  है,
फिर  से  पूनम की चांदनी है,
वो  रातें   कितनी  छोटी  थी,  
इतनी लंबी रातें हमने अब जानी है||

फिर  से  मेरा  मन  पागल है,
उस छवि को फिर से ढूढ रहा|
कैसे  समझाऊ  मैं  खुद  को,
जो   मेरा  था अब वो न रहा||
 
वो मुझको अपना कहता थी, 
हर पल  संग  में  रहती थी|
गर   चोट हमें लग जाती थी,
तो दर्द के आँसू वो रोती थी||

फिर क्यों आज हमें वो छोड़ गयी,
क्यों  हर  नाते हमसे  तोड़ गयी|
ये    दिल  भी  तो  तुम्हारा  था,
क्यों फिर इसको तनहा छोड़ गयी||

ये रातें कितनी लंबी है, क्यों हमको अकेला छोड़ गयी||


Friday 4 May 2012

दिल की हसरत

दिल की हसरत

दिल की हसरत है कि बस तेरा दीदार करूं|
सिर्फ दो पल के लिए ही सही, जी भर के तुम्हे प्यार करूं|

चाँद तो सिर्फ रातों में निखरता है,
हर एक पल निखरे हुए चाँद से इजहार करूँ|

इतनी प्यारी मुस्कराहट है तेरी,
उस पे सौ बार जिंदगियाँ कुर्बान करूं|

दिल की हसरत है कि बस तेरा दीदार करूं|
सिर्फ दो पल के लिए, तुम्हे जी भर के प्यार करूं|

तेरे दांतों से चाँद को जो चांदनी मिलती, उससे अपने दिल का श्रृंगार करूँ|
सिर्फ दो पल के लिए ही सही, जी भर के तुम्हे प्यार करूं|

Wednesday 25 April 2012

"अपना बना लीजिए"

कृति-- मोहित पाण्डेय "ओम"

अपनी नजरों में हमको बसा लीजिए,
हमको इतनी  बड़ी अब सजा दीजिए |
सब  दीवाने  तुम्हारे है  तो  क्या  हुआ,
अब तो हमको भी अपना बना लीजिए||

अपने    चेहरे   से   घूँघट   हटा   दीजिए,
इन काली घटाओं में खुद को समां लीजिए|
इश्क   में   हम     बेहोश  तो     क्या   हुआ.
अपने     होंठों  से    मदिरा   पिला दीजिए ||

इन  तीखी  निगाहों  से  न   क़त्ल कीजिये,
हमसे करके मुहब्बत अपना बना लीजिए|
तेरे  इश्क  में बदनाम  हुए  तो क्या  हुआ,
अपनी   नजरों   में   हमको  बसा  लीजिए|
अपने    चेहरे   से  घूँघट   हटा     दीजिए  ||

Wednesday 18 April 2012

ये दिल चाहता है

        
कृति - जीतेन्द्र गुप्ता

"तेरी झील सी आँखों में डूब जाने को दिल चाहता है
तेरी लहराती जुल्फों में खुद को छिपाने को दिल चाहता है
"
खोए रहते है तेरी ही यादों में 
न होश में आने को दिल चाहता है |
तेरी ही खुमारी छाई है  आठों पहर और
 जहान को भुलाने को द्दिल चाहता है|
दुनिया जहान की जितनी भी खुशियाँ है
वो तुझपर लुटाने को दिल चाहता है |
भूल गए थे रास्ता कालेज के आने का
तेरे लिए कालेज आने को दिल चाहता है|
भूल गए थे हम किताबें क्या होती है
अब कुछ कर दिखाने को दिल चाहता है |
हर सफल इन्सान के पीछे एक नारी होती है
वो तुझको बनाने को दिल चाहता है |
तेरी ही सूरत है मंदिर की मूरत में
तुझे खुदा बनाने को दिल चाहता है |
नही जानते हम ये मोह है या प्यार है
सब तुझपर लुटाने को दिल चाहता है||

Sunday 15 April 2012

"उन्हें ना रही अब मुह्हब्बत"

कृति- मोहित पाण्डेय"ओम "

उन्हें ना रही अब हमसे मुहब्बत,
उन्होंने कहा अब हमें भूल जाओ |
उन्हें ना रही अब हमारी जरुरत,
उन्होंने कहा अब हमें भूल जाओ |

इंतजार कभी अब मत करना,
हमारी बीती दिल्लगी भूल जाओ |
पहले तो दिल में बसाया था उसने,
मगर अब कहा ये शहर छोड़ जाओ |

उन्हें ना रही अब हमसे मुहब्बत,
उन्होंने कहा अब हमें भूल जाओ |
नादान    दिल  ने     उनसे कहा,
पहले  हमारी  खफा   तो बताओ ||

नासमझी   से गर   भूल हो  गयी  हो,
तो इतनी बड़ी अब सजा मत  सुनाओ|
मर   भी  ना  पाएंगे   तेरे   हम  बिन,
जिन्दा दफन कर ना हमको   सताओ ||

उन्हें ना रही अब हमसे मुहब्बत,
उन्होंने कहा अब हमें भूल जाओ ||


"इंजीनियर्स"


कृति --- जीतेंद्र गुप्ता

जब भी मौका हमको मिलता
हम ताश खेलते हैं
जब भी मौका हमको मिलता
दोस्तों को पेलते है |
मेश के खाने के भूत
हमको भी सताते हैं
फिर भी कॉलेज के 4 साल
अनमोल बनाते हैं |
दिन में चाहे कुछ ना करें
पर nightout मारते हैं
exams के time पर हम
knockout जागते हैं |
हम engineering student हैं
मस्ती में झूमते हैं
और भविष्य के सुनहरे सपने
हमारी आँखों में झूमते हैं|

Saturday 7 April 2012

"अम्मा"

कृति  -- मंटू कुमार

नज़र में रहती हो, पर नज़र नहीं आती अम्मा|
कहने को तो साथ है मेरे,पर अपनापन नहीं रहा अम्मा|
पहले एक-एक पल में थे कई जीवन|
अब जीवन में ढूढे एक पल,तेरे बिन अम्मा |
हम खुश रहकर मुस्काते थे,हमें देख मुस्काती थी  अम्मा |
ख्वाहिश नहीं रही अब पाने की कुछ|
तुम्हारी यादें ही काफी है अकेले में रोने के लिए अम्मा |
तुम्हारा न होना भी,होने का अहसास करा जाती है अम्मा|
उस जहान में तुम चली गई, हमें बुलाओगी कब अम्मा |
तुमने थे दिखाएँ जो सपने,बस उन्ही की खातिर जी रहे है अम्मा ||

Sunday 1 April 2012

"उलझन मंडप पे"

कृति -- मोहित पाण्डेय "ओम"

मेरे दिल में यारो एक उलझन बड़ी है |
न चाहा था हमने फिर भी मुसीबत खड़ी है...|
मुहब्बत थी जिससे हमको वो तो नहीं है|
वरमाला लिए एक अनजानी सी सूरत खड़ी  है|

रोका था बहुत सबको हम ये शादी न करेंगे|
अपनी आजादी को हम कुर्बान न करेंगे|
जो सामने है मेरे वो किसी की चाहत रही होगी|
उस शख्स को जख्म दे,खुद के जख्म न भरेंगे|

हम न जानते पहचानते दिल दे भी तो कैसे दे|
जिंदगी भर के साथ का वादा दे भी तो कैसे दे .
हम तो यहाँ मरते है हर पल याद में उसकी|
अपना बना उसे,पराया बन के धोखा, दे भी तो कैसे दे|



Wednesday 7 March 2012

"उसके संग होली"

कृति- मोहित पाण्डेय

आया रंगों का त्यौहार, आओ प्रेम रंग में रंग जाये |
आया मीत-मिलन का वार, आओ रंगों में हम रंग जाये|
आया बसंत मनुहार, प्रियतम की बाँहों में खो जाये |
राग द्वेष सब वैर भुलाकर, आओ रंग अबीर लगाये |

बहुत हों गया भंगिया के बिन, आओ मिलकर भंग लगाये|
भंग नशे में याद वो आई, आओ अपनी व्यथा सुनाये|
कभी मनाते थे उसके संग, आज तुम्हारे संग मनाये|
आया रंगों का त्यौहार, आओ प्रेम रंग में रंग जाये |

जब सर्द हवाए मान को छूकर, प्रियतम का सन्देश सुनाती थी|
तन-मन रोमांचित हों यादों से, हर धड़कन बस उनका हाल बताती थी|
पिया मिलन के ख्वाबो में, ये होली की रुत जब आती थी |
सब तजकर पिया मिलन को, वो होली के दिन आती थी |

प्रेम रंग मन में भरकर, तिरछे नैनों से प्रणय निवेदन करती थी|
होता नयनों का मधुर मिलन,मन की मन से बाते होती थी|
सभी मगन रंगों के संग, लेकिन वो थोड़ी सकुचाती थी|
उसकी सखियाँ जब आकर, मुझसे होली खेला करती थी|

जलन भाव से क्रोधित हों, वो हमसे रूठा करती थी |
कितने अच्छे दिन थे वो , जब वो हमको जानू कहती थी |
बदल गया यारो उस दिन सब, जब उसको एक डोली लेने आई थी
खुश होकर वो ससुराल चली जब, उस दिन मेरी आँखे जी भर रोईं थी |

Monday 5 March 2012

मौत का फरमान

मेरे महबूब ने मौत का फरमान भेजा है,
हल्दी छिडककर खत में एक पैगाम भेजा है|
मेहंदी लगाई दूसरे की अपने हाथ में,
साकी के हाथ विष भरा एक जाम भेजा है |

अरमान थे हम उनकी मांग सजायेंगे,
हर हाल में उन्हें हम अपना बनायेंगे|
वो रुथ गए ऐसे कि हम मना न पाए,
उनकी खुशी कि खातिर जिंदगी तन्हाइयों में बिताएंगे|

. . mohit pandey"om"

“चाँद की चाँदनी नहीं देखी”

कृति – आकृति चौबे

कितने दिन हो गए,
हमने चाँद की चाँदनी नहीं देखी|
यू तो हर दिन के बाद रात होती है,
हर रोज चाँद भी दिखता था खिड़कियों से,
सारा जहाँ नहाता था उसकी चाँदनी में,
हर आशिक अपनी महबूबा को खोजता था उसमे,
हर माँ अपने लाड़ले को दिखाती थी अक्स उसका|
पर कितने दिन हो गए,
हमने चाँद की चाँदनी नहीं देखी|

आज अरसे बाद हमें भी दिखी चाँद की चाँदनी,
ये कैसा असर था हमपे की,
चाँद था पर चाँदनी नहीं|
सांसे थी पर जिंदगी नहीं,
एहसास था पर इकरार नहीं|
इंतजार था पर ऐतबार नहीं,
ये कैसा असर था हम पर की,
चाँद तो देखा मगर चाँद की चाँदनी नहीं देखी|

Friday 2 March 2012

पराई बेटी

बेटी क्यों पराई होती है ?
आखिर क्यों एक दिन उसकी, इस घर से विदाई होती है |
इस घर में ही तो वह, हँसती खिलती पलती है |
फिर क्यूँ उसको अपने घर में रहने कि मनाही होती है
आखिर बेटी ही क्यों पराई होती है?

जब मेरी प्यारी गुडिया, गुड़ियों से खेला करती है |
नासमझ यहाँ की रीतों को, न उनकी विदाई करती है |
फिर रोटी आती है,गले से चिपटकर कहती है |
अब्बा मुझको अपने से, दूर कभी भी मत करना |
अपनी प्यारी बेटी को, इस घर से बाहर मत करना |

---------mohit pandey"om"

Wednesday 29 February 2012

::कुछ सीख लों::

कृति : मोहित पाण्डेय"ओम"


तुम मुस्कुराना सीख लो,
उन अपाहिजो को देखकर|
दोष किस्मत को देना छोड़ दो,
कटे पंख से उड़ते परिंदों को देखकर|

बाजुओ में जोर भरना सीख लो,
जाबांजो को सीमा में लड़ते देखकर|
तुम मुस्कुराना सीख लो,
उन अकिंचनो को देखकर|

समय की पहिचान करना सीख लो,
कोयले से हीर बनता देखकर |
उन्नति पथ पर चलना सीख लो,
अविरत प्रवाह सरिता कि देखकर |
अमर प्रेम करना सीख लो,
जल कर मरे परवाने को देखकर |
अपने प्रण पर रहना सीख लो,
अविचल खड़े हिमालय को देखकर |

खुद जलकर प्रकाश करना सीख लो,
जलते दीपक को देखकर |
दुनिया को रौशन करना सीख लो,
आसमां में तपते सूरज को देखकर |
मानवता कि खातिर खुद की कुर्बानी देना सीख लो,
महर्षि दधिची के अस्थि-बलिदान को देखकर |

माँ भारती के पूत अब, गर्व से सर उठाना सीख लो |
दुश्मन की च|ल को अब, बेनकाब करना सीख लो|
मुट्ठियों के जोर से अब, भूचाल लाना सीख लो |
देश-प्रेम की खातिर, मौत से भी दिल लगाना सीख लो |

Sunday 26 February 2012

काश! कुछ पल बटोर लेते...

काश! कुछ पल बटोर लेते,
काश! कुछ पल बटोर लेते,
काश! कुछ पल बटोर लेते,
जहाँ हम रहते थे कभी,
उस जहां कि यादो से,
काश! कुछ पल बटोर लेते|

खुश रहकर भी खुश नहीं है,
जो हम थे वही सही है,
लम्हे जो सामने मुस्करा जाते थे,
उन लम्हों में से,
काश! कुछ पल बटोर लेते|

यादो को साथ लेकर,
नयी यादो के लिए चलना,
थोडा मुस्कराना,
रोकर मन को तसल्ली दिलाना,
दोस्तों के सामने चेहरे पर हंसी लाना,
फिर,
अगले पल ही सोचना कि,
उन बीते लम्हों में से,
काश! कुछ पल बटोर लेते|

-मंटू कुमार

Saturday 25 February 2012

::चंद दोहे::

कृति :: मोहित पाण्डेय"ओम"
१. प्रेम यहाँ सबसे बड़ा,  सबसे  रखियों  प्रेम |
प्रेम में शबरी गृह गए, तज कर राज के नेम ||
२. प्रेम बिना इस जगत में,मोसे रहा न जाय |
प्रेम सुधा कि कुछ बूंदे, ओम को देउ पिलाय ||
३. कलम लेखनी शाश्वत, दुर्लभ  साँचो मीत |
मीत गयौ कुछ न रहेउ, बची कलम की प्रीत ||
४. साकी अब तो मान ले, या मनवा कि बात |
  जी  भर जाम पिलाय  दे ,  जागूँ  पूरी  रात  ||
५. साँस हमारी थम  गयी,  गयो  अँधेरा छाय |
  पिया मिलन के वास्ते, यम ने लियो बुलाय ||
६. कलम बेहया हो गयी, बिसरी छवि की नाइ|
किया जिकर मनमीत का, हर महफ़िल में जाइ||
७.छवि ने घोटी भंग जब, मदिरा दियो मिलाय| 
   प्रेम-नशा ऐसा चढा, चतुर्दिक छवि दिखाय ||
८. प्रेम  रंग  में  रंग गए ,  उसके  सारे  अंग |
    सकुचाई मनमीत को कियों ओम में तंग ||
 

::होली विशेष ::

कृति - मोहित पाण्डेय "ओम"

रोज यही दोहराते है कि,
हमने उनको भुला दिया |
दुनिया वालो को अब हमने,
दिल का हाल बताना छोड दिया|

उनकी खातिर अब न पियेंगे,
हमने मैखाने जाना छोड दिया|
इश्क-ए-समंदर थाह लगाना,
यारों हमने दिल में उतरना छोड दिया|

होली की रूत आई जब,
उसने ने हमको बुला लिया|
उससे मिलवाने की खातिर,
विधिना ने क्या खूब प्रपंचन रचा दिया|

जीवन के रंग में रंग जाओ,
सबने हम दोनों को अकेले छोड़ दिया|
पर कैसे प्रेम-रंग डालूं उस पर,
जब हमने प्रेम में खुद को रंगना छोड़ दिया|

यारों मैखाना घर में ही बनाकर,
अब हमने मैखाना जाना छोड़ दिया|

Friday 10 February 2012

बेचैन दिल

दिल का कहा सुना था ,तभी तो ये बेचैनी होती है,
कौन कमबख्त होना चाहता था, अपनी दिलोजाँ से दूर|

दूर तो हुआ था उन सपनो को पूरा करने को, जिसे हमने साथ देखे थे,
सोचा न था की उन हसींन सपनो के बदले , आँखों की ये नमी मिलेगी|

अरे इन  आँखों की नमी को तो कोई भी सुखा देगा,
मगर इस दर्द भरे दिल में लगी आग को कौन बुझा पायेगा||

                                                                     -प्रेमराज

Thursday 9 February 2012

दहेज:बिकता नर

 दहेज:बिकता नर

कृति -मोहित पाण्डेय"ओम "             



इस दहेज रुपी दानव ने,
बेटी का जीवन छीन लिया|
इसी दहेज के दानव ने,
मानव मूल्यों का अवकलन किया|

नाग-पाश में फसकर,
तुम मानवता से गिर जाते हो|
मै मानव हू भूल कर यह,
पशुओं की भाति बिक जाते हो|

भृष्ट समाज में अंधे होकर,
विविध आन्दोलन करवाते हो|
खुद की संतान के बैरी बनकर,
धर्म और राष्ट्र भक्ति का पाठ पढाते हो|

विविध प्रपंचं करके खुद,
महापुरुष कहलाते हो|
उस अबोध को तो बचा न सके,
युग परिवर्तन की बात चलाते हो|

नस के पानी को खून समझकर,
बदलाओं की झूठी हवा उड़ाते हो|

अगर अभी रगों में खून,
और मस्तक पर तेज बाकी है|
आओ साथ खड़े हो मेरे,
मन में ऐसा संकल्प करो|

माँ की प्यारी बेटी का डर,
दहेज का दानव खत्म करो|
खुद परित्याग दहेज का कर,
बेटी के सपनो में रंगों को भरो||

दिल की तड़प

तेरी झूठी नफरत की एहसास को भी वो प्यार समझता रहा,   
तेरी उन मीठी गलियों को भी वो इश्क का जाम समझता रहा|

तेरी ठुकराने का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था कि,
न चाहते हुए भी उसे तुम्हे बेवफा समझना पड़ा|
मगर ये कैसी बंदिश है, ये कैसी मजबूरी है,
कि मेरे प्यार की  चिता जला किसी और के साथ बैठ,
तुझे अपना हाथ सेकना पड़ा|

शायद तुम से अच्छी तो चिता की वो लकड़ियाँ ही निकली,
जो इस दर्द भरे दिल के प्यार को जला न सकी|

लेकिन फिर भी तेरे इंतजार में ये दिल आज  भी तडपता  है|
अब तो इंतजार है उस जहाँ  का, जब न वो अदालत तेरी होगी,
न वो शहर तेरा होगा सिर्फ इन्साफ की इबादत मेरी होगी||
                                                                        प्रेमराज कुमार

Wednesday 8 February 2012

दिल की चाह


उसकी एक झलक देखने की चाह ने दीवाना हमे इस कदर किया......
कि इस जिंदगी की तेज रफ़्तार में भी  रुकने पे मजबूर किया !!!!!!!!

बीच राह में रुककर किया था हमने उसके दीदार का इंतजार........
पर फिर भी उस जालिम बेवफा ने किया मिलने तक से भी इंकार!!!!!!!!!!!

अरे गम तो हमे इस बात से नही की वो बेवफा निकल गयी ............
दिल तो बेचैन इस बात से है कि हमारी वफ़ा में क्या कमी रह गयी !!!!!!

                                                                                 -प्रेमराज कुमार

Wednesday 25 January 2012

बेबसी

" बेबसी "
 कृति : भरत नायक


काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|
हर बारिश की बूंदें लाती है पैगाम मेरे आने का पर दुःख  है मुझे तुमसे नही मिल पाने का.
काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|
मेरे  सात रंग छूते तेरे नीले नैनों को तो तुम न तरसती मुझसे मिलने को.
सूरज की किरणे करती हैं हर रोज तेरा दीदार पर मैं रह जाता हूं प्यासा हर बार.
काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|
जब जब सूरज की किरणे तुम्हें छूती हैं,न जाने क्यों मेरे दिल मैं एक कसक सी उठती हैं.
तब मेरा मायूस मन मेरे दिल को समझाता है,क्यां हुआ रोज तू रोज सागर से नही मिल पाता हैं............क्यां हुआ जो तू रोज सागर से नही मिल पाता हैं....
काश की ऐसा होता,जमीन और आसमां एक साथ होते तो तुम और हम साथ साथ होते|

गुरुजनों से कुछ प्रश्न



कृति -'जीतेन्द्र गुप्ता '

ऐ मार्गदर्शक संसार के ,हुआ क्या है आज तुझे |
हम हैं बच्चे आपके , एक प्रश्न तुमसे पूछते |
चिर निराशा के भंवर में रौशनी थे तुम कभी|
जन्मदाता से भी बढकर प्यार करते थे कभी|
छात्रों के हित की हरदम बात तुम थे सोचते|
जब भी गलती होती हमसे प्यार से तुम टोकते |
होता न अर्जुन कहीं होते न द्रोणाचार्य जो|
ऐसे द्रोणाचार्यों को नमन बारम्बार हो|
क्यों रुठा है आज तू ,इतना तो हमको दे बता |
हमने कर डाली क्या कोई क्षमा न होती खता |
जिस गुरु ने दी थी शिक्षा मौत से न डरने की |
उस गुरु को देखकर क्यों होश उड़ जाते अभी |
बात करने में भी हम डरने लगे हैं आपसे |
होगा कैसे शंका का हल गर न बोलें नाथ से |
जिंदगी के मूल्यों को मत गिरा मेरे प्रभू |
बिन तेरे हम बेसहारा अनाथ हैं मेरे गुरु |
देख न हमको तू ऐसे ,हम नही दुश्मन तेरे |
हमको है तेरी जरूरत तू है दुखहर्ता मेरे |
तू गुरु है तू प्रभू है तुझको ही है सोचना |
सुनहरे भविष्य की खातिर है बीज तुझको रोपना |
सोने की चिड़िया बना दे ऐसा तू पारस बना |
इन्द्रियों को जीत ले जो ऐसे जितेन्द्रिय बना||

Saturday 21 January 2012

'प्यार का दूसरा पहलू'


'प्यार का दूसरा पहलू'
कृति-'जीतेन्द्र गुप्ता'

जब दिल ये उदास होता है, एक तेज कसक सी उठती है|
वो  खट्टी  मीठी  यादें, बड़ी  तेज  हृदय  में चुभती है|
ये शीतलहर की है ठंडक और है ये बदन रजाई बिन
इस प्रेमभंवर में फसते ही मौत है आ गई बुलाए बिन|
कितना समझाया इस दिल को पर ना माना ये रत्ती भर,
कितना रोका इन अश्को को पर बह आये ये गालों पर|
कितना मासूम था दिल मेरा तूने क्यों इसको तोड़ दिया,
जैसे तपते सूरज के नीचे सहारा मरु में छोड़ दिया|
कितना खुश था मैं दुनिया में क्यों दुःख से नाता जोड़ दिया|
कितना चंचल भंवरा था मैं ,पंख तूने क्यों मेरा तोड़ दिया|
एक साफ़ स्वच्छ मष्तक को क्यों इतना तगड़ा नासूर दिया|
एक भोले भाले मानुष को यूं बीच भवंर में छोड़ दिया|
क्यों सपने झूठे दिखलाए जब उनमें आग लगानी थी,
क्यों बहलाया मुझको झूठे जब आखिर लाश उठानी थी||
एक सलाह -
" इस प्रेमभंवर में मत पड़ना , जीते जी नरक भुगा देगा 
 भोली सूरत पर मत पड़ना , जीवन को नरक बना देगा "  

नम्र निवेदन

नम्र निवेदन

एक नम्र निवेदन है तुमसे,
सुन लो पुकार इस धडकन की|
क्या तुम्हे शिकायत थी मुझसे?
जो दर्द दिया इस पागल को|

दिल के इक छोटे से कोने पर,
अधिकार तुम्हारा था शायद|
याद तुम्ही को करने की
हो गयी थी मुझको तब आदत|

भूलने के इस सतत प्रयास में,
याद तुम्हारी ही आती है|
अब तो बस तन्हाई के सहारे,
दिन और राते कट जाती है|

खैर मेरी फ़िक्र तुम छोडो,
दीवानों का तो ऐसा ही हश्र होता है
ना चाह कर भी याद करना,
नासमझ दिल तो हँस हँस कर रोता है||

Thursday 19 January 2012

"देशद्रोही आज के"

"देशद्रोही आज के"
कृति-मोहित पाण्डेय"ओम" (Mohit Pandey)

देखो ये कैसे हालात आ रहे है,
मानव हुए दानव खुद को सता रहे है|
खादी की पैबस्त में देश को लूटा,
अब गाँधी नाम को भी बदनाम कर रहे है|

गाँधी तो वो था जो एक पतलून में रहता था,
पर ये देशद्रोही भ्रष्ट जामा पहन रहे है|
वो महात्मा सत्य-अहिंसा का पुजारी था,
पर ये दुष्ट मजहबी विभाजन करा रहे है|

ठण्ड में ठिठुरता गरीब देश पर रोता है,
कि ये मेरा पैसा स्विस में खुद के नाम कर रहे है|
देश के सिपाही सीमा में जान गवाते है,
जमाई बने कसब जैसे यह मौजे मना रहे है|

हम शान से कहते है देश हमारा है,
लेकिन यहाँ शासन विदेशी चला रहे है|
हम जानते है एक दिन ये देश बेंच देंगे,
फिर भी क्यों उन पर मुहरें लगा रहे है|

आज भी कुछ बिगड़ा नहीं,
सब होशो-हवाश में आओ|
सभी मजहबी मिल कर खड़े हो,
फिर भारत माँ के नारे लगाओ|

सपूत भारती के हममे है दम,
अब देश के दुश्मनों को बताओ|
शिकस्त हार देकर इन्हें,
अपनी मात्र-भूमि से खदेडकर भगाओ|

Monday 16 January 2012

खुशी के रंग

खुशी के रंग

कृति: Jagesh Jags

रंग  रंग में रंग जायेगा रंगों की दुनिया में,
रंगीली डुबकिय रंगों के दरिया में,
रंगों के बिच रंगीन भंवर में 
गर कही ,रंग मेरा, रंगत मेरी 
रंग रंगीली हरकत मेरी 
रंग न पाई रंगों से तो 
रंग कही ये उड़ न जाये
उन रंगीन आँखों से 
आँखों का रंग , रंग नहीं है 
रंगों का सैलाब भरा 
रंग बड़ा रंगीन है ये रंगों के सागर से बना 
रंगना मुझको बहुत अभी है ,
उन आँखों को रंगने के लिए 
एक रंग फिर ऐसा भी हो 
रंग  रंगीली आँखों को जब,
भायेगा ये रंग मेरा
तब होगी रंगीन रंगीन दुनिया 
रंग रंग से भरी हुई, कई रंगों से सजी हुई
उन आँखों में भी रंग दिखेंगे
होगी खुशिया भी रमी हुई.

Friday 13 January 2012

भ्रूण हत्या: एक अभिशाप

भ्रूण हत्या: एक अभिशाप 
कृति:
मोहित पाण्डेय "ओम" (Mohit Pandey)

हे जननी दोष क्या था उस अबोध का?      
जो जन्म उसे ना लेने दिया|
करुनामयी ममता की मूरत तू,
फिर भी क्यों उसको मार दिया?

ऐसी भी क्या विपत पड़ी?
जो खुद के खून का क़त्ल किया|
कोख में पलकर उसने भी कुछ सपने देखे होंगे,
फिर क्यों उसको अपने सपनो में रंग न तुमने भरने दिया?

 बेटे की चाह में अंधी होकर,
 खुद अपनी बेटी को मार दिया|
जितनी सेवा बेटा कर न सका,
बेटी उससे ज्यादा कर पायी है|

बेटी खुद होकर भी तू,
खुद बेटी को समझ ना पाई है|
तुमने शायद सोचा होगा,
बेटी आई तो बड़ी मुसीबत आएगी|
पर तुमने ये क्यों ना सोचा,
बिन बेटी स्रष्टि कैसे चल पायेगी?