Saturday, 26 November 2011

" घर से दूर "



                              " घर से दूर "
कृति : आकृति चौबे


वक्त  की  आंधी  ने  कर  दिया ,अपनों  से  इतनी  दूर ..
सपनो   की  ख्वाहिश  में  हम ,क्यू  हो  गए  इतने  मजबूर . .
इंसान  बदलता  है  ,उसका   दिल  नही  बदलता ..
गीली  जमीं  पे  पैर  किसका  नही  फिसलता |
वैसे  चोट  खा  के  तो  लोहे  की  भी  'आकृति'  बदल  जाती  है  ..
तेज  आंधियाँ  वजनी  बालू  को  भी ,उड़ा ले  जाती  है  ..
फिर  हम  तो  इंसान  ह ,वक्त  की  आंधी  में  उड़  चले ..
अपनों  से  दूर  उनके  सपनो  के   लिए ,हम    लो  अब  बह  चले |
इतनी  दूर  की  महीनो  अपनी  ही , परछाईं  के   दर्शन  नहीं   होते ..
अपनी  तस्वीर  में  अब  हम  है , खुद  को  ही  खोजा  करते |
हर चेहरे ने अपने आगे , लगा रखा है एक मुखौटा ,
दिल के रिश्ते तो दूर हर रिश्ता यहाँ  लगता है  झूठा ,
स्वार्थ में अंधे है सब ,दिल सबका है यहाँ  खोटा,
एक वक्त था जब आँखें सबकी और सपना मेरा होता था ,
चोट हमें लगती थी ,दर्द पूरे घर को होता था
यहाँ तो चोट भी मेरी और दर्द भी मेरे ,
आँखें भी मेरी और सपने भी मेरे ,
 हजारों की भीड़ में हम बिलकुल अकेले |

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