" घर से दूर "
कृति : आकृति चौबे
वक्त की आंधी ने कर दिया ,अपनों से इतनी दूर ..
सपनो की ख्वाहिश में हम ,क्यू हो गए इतने मजबूर . .
इंसान बदलता है ,उसका दिल नही बदलता ..
गीली जमीं पे पैर किसका नही फिसलता |
वैसे चोट खा के तो लोहे की भी 'आकृति' बदल जाती है ..
तेज आंधियाँ वजनी बालू को भी ,उड़ा ले जाती है ..
फिर हम तो इंसान ह ,वक्त की आंधी में उड़ चले ..
अपनों से दूर उनके सपनो के लिए ,हम लो अब बह चले |
इतनी दूर की महीनो अपनी ही , परछाईं के दर्शन नहीं होते ..
अपनी तस्वीर में अब हम है , खुद को ही खोजा करते |
हर चेहरे ने अपने आगे , लगा रखा है एक मुखौटा ,
दिल के रिश्ते तो दूर हर रिश्ता यहाँ लगता है झूठा ,
स्वार्थ में अंधे है सब ,दिल सबका है यहाँ खोटा,
एक वक्त था जब आँखें सबकी और सपना मेरा होता था ,
चोट हमें लगती थी ,दर्द पूरे घर को होता था
यहाँ तो चोट भी मेरी और दर्द भी मेरे ,
आँखें भी मेरी और सपने भी मेरे ,
हजारों की भीड़ में हम बिलकुल अकेले |
hmmmm....vry nyc...lines r grt wid realistic mns
ReplyDelete