Sunday 13 November 2011

व्यथित मन


व्यथित मन
लेखक :मोहित पाण्डेय “ओम” 
सहयोग :शिवम शुक्ल

तेजी से धड़क रहा दिल और साँसे फूल रही थी, चेहरा पसीने से तार बतर था और अंतर्व्यथा एवं निरासा से भरा हुआ मन, लग रहा था की जिंदगी की किसी लंबी दौड को हार आया हूँ, उठकर दीवार की तरफ देखा तो सुबह के ३:४० थे | हमेसा ८ बजे तक सोने वाला मै आज ब्रह्म मुहूर्त में ही जग गया था | बाहर ठंढी ठंढी बयार चल रही थी और खग-कुल अपने कलरव में लगे हुए थे | फिर से कम्बल के नीचे खिसक कर मै सोने की कोशिस करने लगा, लेकिन आँखों से नींद उड़ सी गयी थी और मन एक व्यथा से भरा हुआ था | शायद आज मैंने फिर वही सपना देखा था, जो कि कभी मेरे आँखों के सामने की हकीकत थी |
शायद वो जनवरी का महीना था और कड़ाके की ठंड पड रही थी | आज पिता जी के दोस्त ईश्वर अंकल हमारे यहाँ आने वाले थे | उनकी ट्रेन रात में १० बजे पहुँचने वाली थी | उन्हें लेने के लिए मै ९ बजे ही बाइक लेकर घर से निकल गया, स्टेशन पर पहुँच कर पता किया तो हमेशा की तरह भारतीय रेल विभाग की मेहरबानी से ट्रेन की २ घंटे देरी से पहुँचने की संभावना थी | मैंने फोन करके ट्रेन के बारे में पिता-जी को अवगत करा दिया एवं वही पर ओवर-ब्रिज के ऊपर बैठ कर गुलाम अली जी की गज़ल “हम तेरे शहर में आये है मुसाफिर की तरह” सुनने लगा | गज़ल खत्म हुई और मेरी नज़र सुनसान ओवर-ब्रिज़ से गुजरते हुए एक युवक (उम्र लगभग २० साल) एवं एक बालिका(उम्र लगभग १५ साल) पर पड़ी जो की हाथो में प्लास्टिक का थैला लिए, ठंड से सिकुड़ती हुई धीरे-धीरे उसके पीछे जा रही थी |
समय ११ बजने वाला था और ठंढ बढती जा रही थी | ठंडी हवाओं और गज़लों के ग़मगीन माहौल में एक खूबसूरत चेहरे की यादो के आगोश में खो गया | अचानक से ब्रिज़ पर हलचल और पुरानी यादें ओझल हो गयी | सामने से दौडती हुई वही लड़की, साँसे फूली हुई, कुछ पालो के लिए मै उसकी तरफ देखता सा रह गया | वह भी मेरी तरफ अजीब नज़रों से देखती हुई आ रही थी | उसकी ऐसी हालत देख कर मैंने उससे नज़रे मिलाना मुनासिब नहीं समझा | वो मेरे पास से गुजर चुकी थी | एक पल के लिए मेरी आँखे स्तब्ध सी हो गयी थी, वो ब्रिज की दीवार के ऊपर थी | मेरे मुंह से उसे रोकने के लिए कुछ लफ्ज़ निकल ही ना पाए थे की उसकी चीत्कार हवा में सुनाई दी | मै दौडकर नीचे आया, कुछ पल के लिए पूरा शरीर थरथरा उठा | मेरी नज़रों के सामने खून से लथपथ कराहती हुई वही लड़की पड़ी थी जो कुछ देर पहले बिल्कुल ठीक थी |
मैंने आर. पी. एफ. जवानो को सूचित किया | थोड़ी देर में काफी सारी भीड़ एकत्र हो गयी थी | आर. पी. एफ. प्रमुख ने मुझसे पूछताछ करने की कवायद की | अभी भी वो उसी जगह पर कराह रही थी | शायद उसे अस्पताल पहुचाने की हिम्मत कोई नही कर रहा था | मैंने प्रमुख से कहा “पूछताछ तो बाद में भी हो जायेगी पहले इसे अस्पताल ले जाना चाहिए”, उसने तपाक से जवाब दिया “तुम अगर इसे अस्पताल ले जा सकते हो तो ले जाओ, हम बिना नियम कानून के कोई भी काम नहीं कर सकते” | एक क्षण के लिए मै सोचने को मजबूर हो गया की क्या कोई ऐसा भी नियम-कानून है अपने संविधान में ???
तभी सरकार द्वारा जारी किये आपातकालीन नंबर १०० एवं १०८ याद आये | दोनों नम्बरों पर अनगिनत बार कोशिश की लेकिन दोनों में से कोई भी नंबर नहीं लगा | उस लड़की को वहा पड़े हुए लगभग एक घंटे होने वाले थे | समय देखा तो १:३० होने वाला था | ईश्वर अंकल की ट्रेन आकर जा चुकी थी | मोबाइल की घंटी बजी, पिता-जी का फोन था | ईश्वर अंकल घर पहुँच चुके थे | मैंने सारी घटना पिता-जी को बताई | उन्होंने तुरंत मुझे घर लौटने को कहा | कुछ लोग उस लड़की को लेकर अस्पताल जा रहे थे | मेरे मन को कुछ तसल्ली हुई और बाइक स्टार्ट कर के मै घर की तरफ रवाना हुआ | लेकिन बार बार मेरी नजरो के सामने वही चेहरा आ रहा था | घर आकार उस रात मै सो नहीं पाया |
सुबह अंकल के साथ चाय पीते हुए अचानक TV पर मेरी नजरे ठहर सी गयी थी, अस्पताल के बेड पर कराहती हुई लड़की और TV की हेड-लाइन्स में एक और लाइन जुड गयी थी “अज्ञात बालिका ने प्रेम प्रसंग के चलते स्टेशन के ओवर-ब्रिज से कूद कर जान देने की कोशिश की” | अभी तक जिसके लिए मन में करुणा के भाव थे नफ़रत में तब्दील हो गए लेकिन मन में कुछ प्रश्न अभी भी कौंध रहे थे- आखिर वो युवक कौन था? उसका प्रेमी या और कोई?
आखिर इतनी आसानी से कोई किसी के लिए अपने जान क्यूँ दे देता है? फिर भी मेरा मन ऐसा मानने को कतई तैयार नहीं था | आखिर कोई ऐसी वजह जरुर होगी कि उसके सामने खुद को मारने के अलावा कोई और रास्ता नही था | मैंने अपने दोस्त रौशन को फोन किया और अपने मन की व्यथा बताई | हम दोनों रिपोर्टर बन कर उसके मन का काँटा जानने के लिए निकल पड़े |
एक बार फिर से निकल पड़ा था मै ,शायद फिर से एक बहुत बड़ी भूल करने | कहते है उत्साह और जिज्ञासावश किये गए काम में सम्पूर्णता और आनंद की अनुभूति की ज्यादा आशाएं होती है | मेरा मन भी जिज्ञासा के पाश में ग्रसित था, लेकिन दिल का एक वह कोना जो की हमेशा सच के लिए ही धड़कता है, उससे एक टीस सी आई थी की शायद आज मै एक ऐसे रास्ते से जा रहा हूँ जहाँ के चौराहे पे अकेले मै और सारे लोग घ्रिनात्मक बाणों की वर्षा मेरे ऊपर कर रहे है |
शायद मै आज उस गलियारे पर खड़ा था जहाँ मेरे सामने प्रश्नों की मालायें थी | और उनका प्रत्युत्तर देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं थे | व्यथित होकर मै मूक खड़ा था | कहते है हर एक मूक भाव में भी कुछ रहस्य छिपे होते है | लेकिन ये भाव तब तक प्रस्फुटित नहीं होते जब तक उन पर दर्द भरी यादों को अपनी चंचल लहरों के आँचल में संजोये हुए कोई प्रवाहिका उस मूक पत्थर को रेत में न बदल दे | उम्र के बढते पड़ाव में बचपन की यादे और भी गहरी होती जाती है | बचपन में की हुई गलतियां, झूठ बोलना और फिर डांट पड़ना | आज भी उन बचपन के दिनों की यादें दिल को भाव विभोर कर देती है | पूरी सड़क को अपने आगोश में लिए हुए कुहासा ऐसा लगता था की मानो या तो सूर्य देव कुपित हो गए है या फिर राहु केतु के अलावा उन्होंने किसी और से भी बैर मोल ले लिया है | ऊनी शॉल से अपने आप को जकड़े हुए हम रास्ते के अधवारे पर थे | ठंडी हवाओं और ओंस की बूंदों के साथ खेलते हुए आज वो दिन मेरे दिमाग में ठंढी हवा के झोको की तरह समा गया | हम लोग अपने गाँव को छोड़कर शहर आ रहे है | तब मेरी उम्र लगभग ८ साल रही होगी | गाँव के उस प्राकृतिक और मनोहर वातावरण के बीच मेरे पिताजी शायद हमें नहीं रखना चाहते थे, शायद इसलिए कि वो वातावरण भी प्रदूषित था | शहरो के ध्वनि, जल, वायु जैसे प्रदूषणों से तो वह मुक्ति थी लेकिन गाँव के समाज में ऐसे प्रदूषण थे जो कि खतरनाक ही नहीं बल्कि मानुषी जीवन को पाशविक जीवन में बदल देते है | वहां अशिक्षा, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, लड़कियों का शिक्षा से वंचन, बंधुआ मजदूरी तो थे ही साथ ही साथ एक सबसे बड़ा सामाजिक कलंक ‘अछूत-प्रथा’ थी | वैसे तो ये कानून और सरकारी कागजो में गाँधी जी के असहयोग एवं पूर्ण-सहयोग आंदोलनो के साथ संविधान के कुछ अनुच्छेदो में दफ़न हो गयी थी | गाँधी जी ने एक नाम दे दिया ‘हरिजन’ (भगवान के लोग) | इसीलिए अब गाँव में अछूत बस्ती को ‘हरिजन बस्ती’ कहकर जाना जाता था | केवल नाम बदला था और कुछ नहीं | एक तरफ हम सवर्णों की बस्ती थी और नीचे की तरफ हरिजन बस्ती थी | महा मणि मनु द्वारा किया गया वर्ण विभाजन आज भी उसी तरह चला आ रहा था | उनके बच्चों को हमारे साथ खेलने की, बात करने की तथा स्कूल की कक्षा में पास बैठने की अनुमति नहीं थी | अगर वो ऐसा करते हुए पाए जाते थे तो उन्हें स्कूल से निष्काषित कर दिया जाता था | लेकिन बच्चो के दिल तो इन सब से अनजान होते है | भगवान हमें कभी भी किसी के लिए भी दिल में नफ़रत देकर जन्म नहीं देता | तब तो हमारा ह्रदय शुद्ध और पाक होता है | और ज्यो ज्यो हम बड़े होते है हमारे सामाजिक ठेकेदारों द्वारा रोपित नफ़रत का पौधा एक बड़ा वृक्ष बन जाता है |
उसी बचपन के वसंत में फलते फूलते हुए कुछ फूलो से दोस्ती बनायी थी | मै, राजू, छवि, शिवा और अमित बाल जीवन की फुलवारी में लड़ते झगड़ते मस्त रहते थे | इन सब में मेरा अच्छा दोस्त राजू दूसरी बगिया का था, वो ‘अछूत’ था | इस बात का पता हमे तब चला जब छवि के चाचा जी ने हम सबको उसके साथ खेलते हुए देख लिया था | उस दिन हम सबको बहुत दांत पड़ी | इस के बाद से हमने राजू को अपने मोहल्ले के आस पास भी नहीं देखा | हम सब समाज के ऐसे रीति रिवाजों एवं बंधनों से बहुत दुखी थे |
आखिर एक दिन मुझे भी उस बगिया के मनुहारो को छोडकर शहर आना पड़ा | उस दिन छवि को साथ लाने की जिद में बहुत रोया था मै | दस सालो तक मुझे गाँव नहीं जाने दिया गया था | इतने बड़े अंतराल के बाद भी मै अपने दोस्तों को भूल नहीं पाया था | छवि के साथ बिताए हुए बचपन के हसते –खेलते दिन जेहन में घर कर जाते है शायद छवि की दोस्ती ,छुपा-छुपी का खेल और यादें एक चाहत में बदल गयी | बचपन की दोस्ती से ये चाहत का सफर मैने कैसे तय किया आज भी नहीं जानता | आखिर इतने बड़े अंतराल के बाद उससे मिलाप का समय अ गया था | एक पारिवारिक समारोह में शामिल होने के लिए आज मै पिता जी के साथ गाँव जा रहा था | उस शाम को हम लोग गाँव में थे | जगमगाती लाइटें, बेजोड सजावट परिवारजनों एवं रिश्तेदारों के बीच मै केवल एक चेहरे की तलाश में था | थोड़ी देर में चाय की ट्रे लिए हुए एक चेहरा आया, मै उसकी तरफ देखता ही रह गया | वो चाय देकर चली गयी मेरी हालत का अंदाजा लगते हुए पिता जी ने बताया की वो तुम्हारे बचपन की दोस्त छवि थी | छवि इतनी बड़ी हो चुकी होगी ऐसा तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था, आखिर मै भी तो अठारवी में प्रवेश कर चुका था | मेरा दिल उससे मिलने के लिए बेताब था | पूरे समय मेरी नजरें उसे खोजती रहीं पर वो दुबारा नही दिखी | सोचा था पूरे समय उसी के साथ बैठूँगा उसके बिना बिताए हुए दस साल अपने दिल की चाहत, अरमान आज सब कह डालूँगा शायद खुदा को कुछ और ही मंजूर था | पिता जी के किसी जरुरी कम की वजह से हमें रात में ही लौटना पड़ा | लौटते हुए मै आज ऐसा महसूस कर रहा था की कोई श्वेत धवल आकाश गंगा क्षण भर के लिए प्रकट होकर हमेशा के लिए उस शून्याकाश में विलीन हो गयी हो |
कल से ही मै काफी उदास था शायद माँ से अपने दर्द को छुपा पाना मुश्किल ही होता है | माँ के पूछने पर मैंने छवि से न मिल पाने की सारी व्यथा बता डाली | माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुयें आश्वाशन दिया की हम छवि से मिलने जरुर चलेंगे | लेकिन आज छवि से मिलने की तमन्ना उसके लिए संजोये हुयें सपने एक क्षण में खाक में मिल गए थे | गाँव से खबर आई थी की लाखन सिंह की बेटी छवि ने जहर खाकर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली | ये खबर सुनते ही मै बिल्कुल टूट सा गया, आँखों के सामने पूरी तरह अँधेरा छा गया, अपने सपनो को इस तरह टूटते हुए देखने की हिम्मत मुझमे नहीं थी |
उस खुद-कुशी का कारण जानने की मैंने बहुत कोशिश की लेकिन कोई भी मुझसे उसके बारे में बात करने के लिए तैयार ही नहीं था | कुछ साल पहले उसे पाने का जो सपना संजोया था वो आज भी जिन्दा है फर्क बस इतना है की ये अब कभी पूरा नहीं हो सकता है | आज भी उसकी यादों में तन सिहर उठता है और आँखों में आंसू आ जाते है | रुमाल से अपने आंसुओ एवं ओंस की बूंदों को पोछते हुए हमने अस्पताल के मुख्य द्वार में प्रवेश किया |
सुबह और ठण्ड का मौसम होने की वजह से अस्पताल में एक ख़ामोशी सी थी | श्वेत कपड़ो में ढकी हुयी नर्से पूरी तन्मयता के साथ रोगियों की सेवा में तत्पर थी | कुछेक वार्ड पार करते हुए हम वार्ड ५ बेड नंबर ३७ के पास पहुंचे | अस्पताली कम्बल में लिपटे हुए सिकुड़ी सी वो करवट लिए पड़ी थी | शायद वो सो रही थी | हम बिस्तर के बगल में पड़ी बेंच पर बैठ गए | अचानक उसने करवट बदली और हमारी तरफ घूर कर देखा | उसकी आँखों में मेरे लिए नफ़रत थी या कुछ और मै आँक नहीं पाया | रोशन ने उससे बात करने की कोशिश की पर अहसास हुआ की वो हमसे बात ही नहीं करना चाहती थी | कुछ क्षण के लिए हम शांत होकर बैठ गए | फिर रोशन ने उससे अखबार में छपी खबर के बारे में पूछते हुए उससे कहा क्या तुम किसी के साथ घर से भागी थी? क्या वो लड़का जो तुम्हारे साथ था तुम्हारा प्रेमी था? क्या तुमने प्रेम-प्रसंग के चलते आत्म-हत्या करने की कोशिश की ?
रोशन के ये प्रश्न उसके दिल में तीर की भांति चुभे, उसकी आँखों के समंदर से कुछ मोती बाहर आ गए थे | न चाहते हुए भी उसने अपनी आप बीती हमें बतानी शुरू की | उसके पहले ही शब्द हमारे ह्रदय में कौंध गए | उसने अपना नाम निशु बताया |
भैया शायद मै मर जाती तो अच्छा होता अब जिंदगी जीने के कोई वजह मेरे पास नहीं रह गयी, दुःख भरे तीरों ने मुझे छिन्न-भिन्न कर जर्जर सा कर दिया है | एक जिन्दा लाश की तरह जिसका इस दुनिया में कोई नहीं ,आखिर मै कब तक जिन्दा रहती | जबसे होश संभाला माँ का तो चेहरा ही नहीं देखा, बचपन में ही वो मुझे और मेरे भाई को पिता जी के सहारे छोड़कर चल बसी थी | पिता जी एक पत्थर की खदान में काम करते थे | खदान मालिकों का पूरा गुस्सा वो रात में शराब पीकर हम दोनों बहनों पर उतारते थे | लेकिन एक दिन हमारे सर से बाप का साया भी उठ गया | अब इस पराई दुनिया में केवल मै और मेरा भाई रह गये थे | पिता जी की जगह अब भाई ने खदान में काम करना शुरू कर दिया | लेकिन अचानक एक शाम गाँव के कुछ सवर्ण लोग चिल्लाते हुयें घुसे और भाई को घसीटकर बहार ले गए ,वो एक आखिरी क्षण था कि जब मैंने भाई का चेहरा अंतिम बार देखा था |
यह कहते हुए वो फूट-फूट कर रो पड़ी | थोड़ी देर बाद उसकी सिसकिया बंद हुई |आखिर उसके भाई के साथ क्या हुआ हम जानना चाहते थे | निशु ने आगे बताना शुरू किया –‘भाई को तेजाब डालकर पूरी तरह झुलसा कर मर डाला गया’| उसके भाई को इतनी बेदर्दी से क्यूँ मारा गया ये कारण जानने की हिम्मत हमसे न हुई | वो बोल रही थी और हम सुनते जा रहे थे | भाई की मौत के बाद गाँव से उसे भी निकाल दिया गया | एक पड़ोसी एवं भाई के अच्छे दोस्त बिरजू के साथ उसके विश्वास पर की शहर में कुछ कम मिल जायेगा, मै शहर आ गयी | उस रात मै और बिरजू ओवर-ब्रिज पार कर के स्टेशन पर पहुंचे थे | बिरजू टैक्सी लेने के बहाने स्टेशन के बाहर गया | मैंने देखा की वो राक्षस जैसे शरीर वाले भयानक काले लोगो से कुछ बाते कर रहा है | चुपके से जाकर मैंने उनकी बाते सुनी |
बिरजू मुझे दलालो के हाथो बेचना चाहता था | जिसके ऊपर मेरा भाई सबसे ज्यादा विश्वास करता था, आज उसके ऐसे मन्सूबे देखकर अब पूरी दुनिया से ही मेरा विश्वास उठ गया था और बिना कुछ सोचे हुए विष का घूंट पिए मैंने छलांग लगा दी | उसकी आंखे नम थी | उसकी पूरी कहानी जानने के बाद भी एक प्रश्न मेरे मन में कौंध रहा था आखिर तुम्हारे भाई को उन लोगो ने मारा क्यूँ ? शायद ये प्रश्न उसे और इसका उत्तर मुझे स्तब्ध करने वाला था | उसने बताया की उसका भाई राजू और गाँव के लाखन सिंह की बेटी छवि एक दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करते थे | छवि ये जानते हुए भी की राजू अछूत है, उनका रिश्ता कभी भी समाज स्वीकार नहीं करेगा फिर भी चोरी-छुपे राजू से मिलती थी | एक दिन ये सच गाँव में उजागर हो गया और मेरे भाई को मोहब्बत की सजा मिली | दो दिन बाद ही छवि ने भी जहर खाकर खुद-कुशी कर ली |
एक क्षण के लिए मेरे दिल ने धडकना बंद कर दिया, शरीर में एक तरह की सुन्नता का अहसास हुआ और दिमाग चकराने लगा | इतने दिनों से छवि की खुद-कुशी का रहस्य जानना चाहता था जो आज मेरे सामने था, जानकर शरीर पसीने से तरबतर हो गया था | शायद ये रहस्य –रहस्य ही रहता तो ही बेहतर था लेकिन आज जिंदगी का एक सच मेरे सामने था | “जरूरी नहीं कि जिसे हम चाहे वो भी हमें चाहे, जिसके लिए हम सपने बुने वो भी हमारे सपने देखे, जिससे हम प्यार करे वो भी हमें प्यार करे” | अपना परिचय बताए बिना कि मै भी राजू के बचपन का दोस्त हूँ, एक व्यथित मन लेकर घर वापस आ गया |
घर आकर मैंने माँ को सब कुछ बताया दूसरे दिन मै माँ और पिता जी निशु को लेने अस्पताल पहुंचे | पिता जी और माँ को देखकर वो पहचान गयी | हम निशु को लेकर घर आ गए |घर में उस दिन बहुत खुशी थी| निशु के आ जाने से पूरा घर हंसी –खुशी से ओतप्रोत था| आखिर घर को एक बेटी एवं मुझे एक प्यारी सी बहन मिल गयी थी |
घडी की तरफ नजर उठाकर देखा तो सुबह के ७ बजे हुए थे | आज पिता जी के साथ आफिस जाना था तभी चिडियों सी चहचहाती हुई निशु कमरे में आई “भैया पापा नीचे इंतजार कर रहे है जल्दी जागो नहीं तो पानी डाल दूँगी” |

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