Wednesday 30 November 2011

"बचपन"

                        "बचपन"
कृति : जीतेन्द्र गुप्ता

हमने कभी नहीं सोचा  था , इतना याद वो आएगा
उसका एक एक दिन हमको यूँ  तड़पायेगा 
दोस्तों से छीनकर खाना , अमृत स्वाद दिलाएगा
अब तो हरदम यही सोचते ,वो बचपन कब आएगा ?
माँ की लोरी की मिठास और पापा की झूठी  डाट 
लड्डू चुरा चुराकर  खाना और बहाने वो बकवास
अब तो मीठे से परहेज जैसे हो अपना उपवास
हम इतने क्यों  बड़े हो गए , अपना बचपन था झक्कास
न थी फ़िक्र किसी की न थी झूठे status की शान
 चड्ढी पहन के  फूल खिला है, हम तो थे मोगली महान
कंचा ,टिक्का, गिल्ली-डंडा ये सब तो थे अपनी जान
ये तो है एक परम सत्य की अपना बचपन था महान 
बचपन की वो मीठी यादें हमको जान से प्यारी है
भागदौड के इस जहाँ में इन्ही से अपनी यारी है
लोगो की झूटी उम्मीदे अब तो जान पे भारी है
आओ फिर से लौट चलें हम वो खुशियाँ ही हमारी हैं|

Saturday 26 November 2011

" घर से दूर "



                              " घर से दूर "
कृति : आकृति चौबे


वक्त  की  आंधी  ने  कर  दिया ,अपनों  से  इतनी  दूर ..
सपनो   की  ख्वाहिश  में  हम ,क्यू  हो  गए  इतने  मजबूर . .
इंसान  बदलता  है  ,उसका   दिल  नही  बदलता ..
गीली  जमीं  पे  पैर  किसका  नही  फिसलता |
वैसे  चोट  खा  के  तो  लोहे  की  भी  'आकृति'  बदल  जाती  है  ..
तेज  आंधियाँ  वजनी  बालू  को  भी ,उड़ा ले  जाती  है  ..
फिर  हम  तो  इंसान  ह ,वक्त  की  आंधी  में  उड़  चले ..
अपनों  से  दूर  उनके  सपनो  के   लिए ,हम    लो  अब  बह  चले |
इतनी  दूर  की  महीनो  अपनी  ही , परछाईं  के   दर्शन  नहीं   होते ..
अपनी  तस्वीर  में  अब  हम  है , खुद  को  ही  खोजा  करते |
हर चेहरे ने अपने आगे , लगा रखा है एक मुखौटा ,
दिल के रिश्ते तो दूर हर रिश्ता यहाँ  लगता है  झूठा ,
स्वार्थ में अंधे है सब ,दिल सबका है यहाँ  खोटा,
एक वक्त था जब आँखें सबकी और सपना मेरा होता था ,
चोट हमें लगती थी ,दर्द पूरे घर को होता था
यहाँ तो चोट भी मेरी और दर्द भी मेरे ,
आँखें भी मेरी और सपने भी मेरे ,
 हजारों की भीड़ में हम बिलकुल अकेले |

Tuesday 22 November 2011

"जानू" एक व्यंग कथा

"जानू" एक व्यंग कथा 
व्यंगकार - मोहित पाण्डेय "ओम"

बड़े लोग कहते है की खाना खाने के बाद थोडा टहलना चाहिए इससे पाचन क्रिया सुचारू रूप से चालित होती है |और वैसे भी मेरे लिए ये अति आवश्यक हो गया था  ,बात तब की है जब मै कानपुर में रहकर अध्ययन रत था |उस समय हॉस्टल के खाने की अपच से बचने का एक मात्र सर्वोत्तम तरीका था रात्रि में खाने के बाद टहलना |
               आदतन आज भी रात का खाना खाने के बाद मै अपने कुछ दोस्तों के साथ हॉस्टल से घुमने के लिए निकला |हम लोग अक्सर बड़े हनुमान जी के बगल वाले रास्ते से होते हुए गर्ल्स हॉस्टल वाले रास्ते में घूमना ज्यादा पसंद करते थे |मेरे कुछ अजीज दोस्तों का मानना है की इस रास्ते में चलने से एक शांति का अनुभव होता है |मेरा मतलब शांति न की शांति नाम की कोई लड़की वैसे भी हमारे महानगर में शाम ७ बजे के बाद लडकियों का घर तथा हॉस्टल से निकलना प्रतिबंधित है |
                हो सकता है ऐसा उनकी सुरक्षा के नजरिये से किया गया हो ताकि रात्रि के अँधेरे में कोई भला मानुष अपना मुह कला न कर बैठे |वैसे शहर में लडकियों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम है | फिर भी अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की नजर से यहा पर हर एक लड़की एक या अनेक बॉय-फ्रंड पालकर रखती है |इस बॉय-फ्रंड नाम के जीव को वो जानू कहकर पुकारती है |
               ये जानू उनकी सुरक्षा के अलावा उनकी हर जद्दोजेहद का ख्याल रखता है |वैसे भी जानू नाम के जीव को आप शाम के समय गंगा के किनारे  पर चट्टानों के मध्य देख सकते है |यहा पर आपको तरह तरह  के प्रत्यक्ष अनुभव मिलेंगे |आपने अभी तक सुना होगा दो शरीर और एक आत्मा यानि आत्म मिलन ,लेकिन यहा पर शरीर मिलन होता है |आप दूर से देखेंगे तो फर्क ही नहीं कर पाएंगे की वहा पर दो प्राणी है या केवल एक |प्रेम के जाल  में बंधे दोनों प्राणी एक से हो जाते है|
                अपने दोस्तों में इस 'जानू' नाम के जीव को आप बखूबी देख सकते है |आपका हर एक दोस्त जो जानू है शाम के समय आपके पास कभी नहीं रह सकता है |शाम के कुछ घंटो का अन्तराल उसकी जॉब का गोल्डेन टाइम होता है |इस समय में अनुपस्थित रहने पर उसे जानू नाम से हाथ गवाना पड़ सकता है |और एक बार जानू का ताज गवाने पर उसे दुबारा हासिल करना टेढ़ी खीर है |क्यू की इस प्रतियोगिता वादी युग में जानू बनने का सपना मन में संजोये हुयें लोगो की एक लम्बी कतार लगी रहती है |
                 यहा जानू कोई आसानी से नहीं बन जाता ,जानू बनने के लिए कठिनता भरे कई स्तरों को पर करना पड़ता है इनमे सबसे महज है लक्ष्मी मैया की प्रधानता |अगर आप पर लक्ष्मी प्रसन्न है तो शुरुवाती स्टेप स्किप कर सीधे अंतिम स्टेज पर पहुच सकते है |सबसे ध्यान देने योग्य बात ये है की जानू का ताज हासिल करने के बाद कही आप अपने कर्तब्य से विचलित न हो जाये नहीं तो आपको तुरंत ही जानू ताज से हाथ गवाना पड़ सकता है |

              खैर हम पांचो दोस्त रास्ते से होकर मंदिर से गुजर रहे थे |वैसे भी हम जब फालतू होते है तो स्त्री-विषयक समस्याओं जैसे स्त्री-सशक्तिकरण ,महिला आरक्षण ,समानता का अधिकार और महिला सम्मान , पर बहस जरुर करते है |आज हम महिला सम्मान और समानता के अधिकार पर बहस करते हुए जा रहे थे |बहस के दौरान हम इन विषयो पर इतने ज्यादा उत्तेजित हो जाते है की गाली-गलौज और मार-पीट जैसी सम्भावनाये प्रबल हो जाती है |
             बहस करते-२ हमारी आवाजे काफी उग्र हो चुकी थी |तभी हमने पाया की हमारे आगे कुछ लडकिया जा रही थी बाद में पता चला की वो मेरे ही कॉलेज की थी |बहस काफी आगे बढ़ने के कारण मैंने दोस्तों से तेज चलकर उनसे आगे होने के लिए कहा ताकि हमारे विचारो से उन्हें कोई कष्ट न हो |तभी हमारे एक दोस्त अपना पक्ष रखते हुए बोले "नहीं हम महिलाओं का सम्मान करते है और जो लोग दूसरो का सम्मान करते है वो उनका अनुशरण करते है न की उनसे आगे चलते है" |तभी हमारे दूसरे दोस्त जो कि मदिरा-मय मालूम होते थे अंग्रेजी के कुछ शब्द जड़े "आई रेस्प्क्ट देम दट्स व्हाई आई ऍम फालोविंग देम "| मुझे आज तक समाज में नहीं आया की पीने  के बाद लोग अंग्रेजी क्यों बोलने लगते है |तभी एक दोस्त ने मेरी शंका दूर करते हुए कहा की उसने अंग्रेजी दारू लगाई है न इसीलिए अंग्रेजी बोल रहा है |वैसे मदमस्त होने के विषय में कबीर जी ने कहा है 'मन मस्त हुआ तब क्या बोले' अब वो अंग्रेजी तो बोल नहीं सकते थे क्यों की कबीर जी के जमाने तक अंग्रेज भारत नहीं आये थे हो सकता है तब लोग पीकर संस्कृत या कबीर जी की खिचड़ी भाषा  बोलते हो |
                 खैर अपना इससे कोई वास्ता नहीं अगर ये वैज्ञानिको द्वारा ये सिद्ध हो गया की अंग्रेजी पीने से अंग्रेजी बोल सकते है तो फिर प्रतिदिन २ पेग लगाकर ऑफिस जाना पड़ेगा |
                   मेरे दोस्तों के ऐसे उच्च विचार सुनकर आगे जा रही लडकियों ने चुप्पी  नहीं साधी|उन्होंने भी तुरंत समानता का अधिकार दिखाया| उनमे से एक ने कहा "इन जूनियरो के भाव खराब हो गये है दे डोंट नो हाउ टू बिहैव विद सिनिअर ,रैगिंग शुड नॉट बी बैन्ड इट इज मस्ट" |
                        उनकी अंग्रेजी और तपाक से दिए हुए हुए उत्तरों को सुनकर लगा की वो भी कुछ पेग लगा के आई है |वैसे भी आजकल लडकियों का दारू पीना सामान्य है क्यों की समानता का अधिकार जो उन्हें मिला हुआ है |अभी कुछ दिन पहले मैंने अख़बार में एक खबर पढ़ी थी की छात्रावास में दारू सेवन करती हुयी कुछ छात्राए पकड़ी गयी |खैर दारू पीने का तो आजकल एक फैशन सा चल पड़ा है |वैसे तो दारू के हर एक रैपर पर लिखा होता है दारू पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है अब दारू कंपनियों  को मेरा एक सुझाव है की इसकी जगह लिखना चाहिए ज्यादा दारू पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है |
             खैर छोडो ये तो सामाजिक बातें है बाद में भी डिस्कस कर सकते है | आगे बताता हू की दूसरी लड़की का प्रत्युत्तर क्या था -"अरे इनकी रैगिंग नहीं हुयी अभी मै अपने जानू से से काहती हू की आज ही इनकी मास-काल लें मेरा जानू इन्हें बतायेगा की किसकी वाली से इनका पाला पड़ा था ,मेरा जानू मेरा बहुत ध्यान रखता है एक दिन तो मेरी खातिर अपने दोस्त से भी झगड़ गया था " अब ये लोग तो गए | उनकी ऐसी बातें सुनकर लगा की हमने कोई बहुत बड़ी गलती कर दी है अब तो मास-काल होगी और पता नहीं उसका पालतू जानू क्या करेगा हमारा |
             इसी सोच विचार में चिंतित से हम हॉस्टल की तरफ लौट रहे थे |तभी हमारी नजर सामने आते एक अजीब मानव जैसे जीव पर पड़ी वो अपने हाथ हवा में लहरा रहा था मानो अपनी तन्हाई से बात कर रहा हो |जब वो करीब आया तो उसके कान में इअर-फ़ोन था अब हमें पता चला की वो जानू है और अपनी जानी से बात कर रहा है | अचानक अब वो फ़ोन बंद करना चाहता था उसने मोबाइल निकाला और मुह के सामने ले जाकर चुम्बन जैसी प्रतिक्रिया की |मुझे समझ में नहीं आया की वो मोबाइल को चुम्बन क्यों कर रहा था तब एक अन्य दोस्त ने शंका दूर करते  हुए कहा वो तरंग(वेव) चुम्बन कर रहा है जो सिग्नल के माध्यम से जाती है |उसके ऐसे तर्क सुनकर लगा की तब तो जनसँख्या नियंत्रण बहुत ही मुश्किल हो जायेगा ,पता नहीं किसका सिग्नल किसके सिग्नल से ओवर-लैपिंग करके प्रोडक्ट में बदल जाये और सबसे बड़ी बात तो अपना बच्चा पहचानना ही मुश्किल हो जायेगा | ऐसे तार्किक विचारो से हम सब लोग खिल-खिला कर हस रहे थे और भूल गए थे की हॉस्टल पहुचने पर हमारे साथ क्या होने वाला है |

Sunday 20 November 2011

बात एक रात की


बात एक रात की

बीती रात एक लड़की देखी मैंने अपने सपने में,
नयन सुलोचन, चंचल चितवन, मृदु भावो के संगम में |
स्वेत वस्त्र धारण की थी, वो चाल मयूर मनोहर थी,
बहुत परिश्रम हो जायेगा मुझको उसके वर्णन में |

हांथो में वो पुष्प लिए जा रही थी शायद मंदिर में,
मन मंदिर में स्थान बना गयी एक मधुर सी चितवन से |
उसका हर एक कदम मेरे दिल में सीधे समां रहा था,
स्वच्छ-पाक ह्रदय भी शायद किसी की खातिर धड़क रहा था |

नयन नख्श ऐसे की जैसे पूनम का चाँद थी वो,
जुल्फों की गर बात करे तो काले मेघों का झुण्ड थी वो |
मुस्कान तो ऐसे जैसे कि घनघोर घटाओं बिच बिजली,
रूप तो ऐसा जैसे मानो स्वयं कामिनी का मूर्तरूप हो |

मै तो आज सर्वस्व निछावर कर दूं उस चेहरे की खातिर,
बस एक बार मिला दे मौला मुझको उसकी धड़कन से |
मै तो एक अंजान सा प्राणी घूम रहा हूँ मरुथल में,
मन पपीहे को सिंचित कर दे स्वाति की अमृत बूंदों से ||

"बसंत की व्यथा "

                        "बसंत की व्यथा "                                           कृति : रविशंकर गुप्ता                                                                                                                                                      अलविदा बसंत ,देखो पतझड़ है आया
है नहीं अकेला ,संग किसी को ये लाया 
ठण्ड और हवाओं की टोली संग लाया ,
हरे भरे वृक्षों को पियरी ओढाया |

अलविदा बसंत ,देखो पतझड़ है आया
परिवर्तन की बयार संग है लाया
दुखभरी घटाओं की कल्मिया भी लाया
विरहनी  के आंसुओं की बरसात संग लाया
अलविदा बसंत ,देखो पतझड़ है आया |

पर बसंत डर  नहीं , तू मन ही मन में मर नहीं
ये अंत सास्वत है नहीं ,आरम्भ नए युग का है
बहार फिर से आएगी ,लबों पे हंसी छाएगी
धैर्यवान बन जरा ,मेरुदंड सा तन जरा
कर जरा कठोर तप, रातें  केवल एक जप
निराश ना  मै होऊंगा , अटल चलूँगा मार्ग पर
कभी तो लहलहाएगी  वल्लरी वो जीत की
धरा ये गुनगुनाएगी, बसंत  ऋतू फिर से आएगी ||  

"यादों का बचपन"

"यादों का बचपन"
कृति - मोहित पाण्डेय "ओम"

वो बचपन की खुशियाँ, जवानी का गम |
रूठे है आज हमारे करम |
गए थे मनाने वहां पर उन्हें,
शायद मान जाये रूठे सनम |
पै देखा उन्होंने अनजान बनकर,
बेजान नजरों में सब कुछ भुलाकर |
उन्हें याद न था वो भूला ज़माना,
हमें याद है वो गुजरा जमाना |

रंगीन हाथों से रंग का लगाना,
हाथों से उनके फुलझड़ियाँ जलाना |
रातों में परियों की बातें सुनाना,
घुमड़ते बादल में 'छवि' को दिखाना |
मगर हम न भूलें वो प्यारा ज़माना ,
हमें याद है वो गुजरा ज़माना |
कदम्ब की कलियों को हाथों में देना,
सरसों पीत कलियों से केश सजाना |

आवाज देकर अकेले बुलाना,
चोरी से उनको मिठाई खिलाना |
मगर हम ना भूलें वो प्यारा जमाना,
उन्हें याद ना था वो भूला ज़माना |
बगिया में रंगीन तितलिया पकड़ना ,
खम्भे के पुल पर हाथों में हाथ लेना |
पकड्म खेल में बेतहाशा दौड़ना,
चाँद मेरा है कहके लड़ना झगड़ना |

पै उन्हें याद ना था वो बचपन का गाना|

गंगा की लहरों में गोतें लगाना,
मेले से लाकर चरखी चलाना |
बातों ही बातों में उनको रिझाना,
गर रूठ जाएँ तो मुश्किल मनाना  |
उनको ही सब कुछ माना था अपना,
बदल गएँ वो बदला ज़माना |
लगा आज मुश्किल है उनको मनाना,
खुशियों में भाया खुद का मातम मनाना |

Wednesday 16 November 2011

"नफरत-प्रेम"

नफरत-प्रेम 
कृति-मोहित पाण्डेय"ओम" 
 (ये पंक्तिया मैंने तब लिखी  जब उन्होंने हमसे ये जताया की वो हमसे अब नफरत करते है और हमें अहसास हुआ की वो हमारा नाम भी नहीं सुनना चाहते और न ही कोई मेल-मिलाप रखना चाहते है पर मुझ चकोर को आज भी उस चाँद की 'छवि' का इंतजार है जब वो उज्जवल धवल कोमल चांदनी में  प्रणय-लीला में मग्न हो जायेगा ) 

जो अपने थे कभी ,
वो आज दिली नफ़रत करते है |
और पराये दुनिया वाले ,
हमसे मुहब्बत करते है  |

ऐसे उम्मीद न थी उनसे ,
जिन्दा दिल दफ़न हमें करते है|
कह दो मेरे यारों उनसे ,
कब्र में मुर्दे दफ़न करते है |

हम तो जिन्दा दिल परवाने ,
जो प्रेम की लौ में जलते रहते है |

दोस्त हमारे हमसे पूछे ,
बताओ कौन है वो बेवफा |
बस दिल हमने लगाया उनसे,
यही थी यारों मेरी वफ़ा |

नफरत की सारी हदे उसने तोड़ी,
अब तो रचनाओ से भी नफ़रत करते है|

हम कहते है उनसे जो,
इतनी नफ़रत हमसे करते है|
नफरत की खातिर ही समझो,
कभी याद तो करते है| 


नफरत-प्रेम तो एक पहलु है,
जैसे रात्रि-दिवा और ऋतू परिवर्तन करते है |

हम तो दुःख में भी हसकर,
रहने की हिम्मत रखते है |
गर दिल तुमसे लगाया था,
आंसू सहने की हिम्मत भी रखते है|


इतनी नफरत वो हमसे,
कैसे कर सकते है|
शायद नफ़रत को प्रेम मानकर,
वो हमसे मुहब्बत करते है|

 

"मेरे अल्फाज "

मेरे अल्फाज 
कृति - मोहित पाण्डेय"ओम" 

दिल में दर्द तो बहुत है,
बयाँ करने को अल्फाज नहीं मिलते|
गिले शिकवे तो बहुत है दिल में,
उन्हें सुनने वाले नहीं मिलते|
बयाँ करना तो चाह बहुत उनसे,
मगर वो शक्श हमारी नहीं सुनते|

उनकी गालियों में जाते थे,
अरमान हम उनसे मिलते|
अरमानो को हमारे जला डाला,
हम प्रेम पथिक आशाओं के सागार में रहते|

हमारी शक्ल दुस्वार थी उन्हें,
फिर भी उनके लौटने के सपने बुना करते|
मिलना न चाहते थे वो हमसे,
और प्रेमाग्नि में हम जलते रहते|

ये भी तो उन्हें मंजूर न था,
कि मनुहारी बगिया में हम भी खिलते|
दर्द तो ऐसा मिला उनसे,
दुनिया से दर्द छुपा नहीं सकते|
दिल से बर्खास्त किया उसने,
अब आँखों से झरने बहते|

अब मै क्या मांगू रब से,
उनके बिना जी भी नहीं सकते|
मरना तो हर क्षण चाहा हमने,
पर उस 'छवि'से जुदा हो नहीं सकते 
ये किसकी 'छवि' बसी दिल में,
जिसको खुद से जुदा हम कर नहीं सकते|

"पहला प्यार"

                                 "पहला प्यार" 
कवि : जीतेन्द्र गुप्ता

बारिश की बूंदों सा ,
सावन के झूलों सा , बसंत की हरियाली सा ,
सूरज की लाली सा , दोस्तों की गाली सा ,
कोयल की बोली सा
मिठास देता है पहला प्यार|                                                                                                   

दुःख में खुशहाली का , घर में घरवाली का ,
सर्दी में गर्माहट का ,माँ की बडबडाहट का , 
 धुप में  छाँव का ,
 डूबते को नाव का एहसास देता है पहला प्यार|

ठंडी हवा का झोंका है ,सोचो तो अनोखा है ,
गरमा-गरम  समोसा है ,साऊथ का डोसा है ,
दिल की धडकन है
मछली की तड़पन है  पहला प्यार |
                                                                     
हँसते को रुलाता है,दिल में टीस जगाता है,
 अपनों से लड़वाता है ,दोस्तों से बिछड़वाता है,
 न जीने न मरने देता है मुझे ये मेरा पहला प्यार|

Tuesday 15 November 2011

एक आस

एक आस 
कृति - मोहित पाण्डेय "ओम" 

आज भी दिल के मंदिर में ,
एक छवि संजों कर रखी है |
वो आएंगे जरूर ,
ये आस बना कर रखी है |

वो न भी आयें ,
तो दर्द न होगा |
अपनों से दर्द पाने की,
हमने आदत सी बना रखी है |

उन्हें कभी भी भूल पाना तो ,
मेरे लिए मुमकिन न होगा |
इसीलिए तो खुद की खातिर ,
हमने अपनी कब्र सजा रखी है |

Monday 14 November 2011

" भारत बदल रहा है "

                      " भारत बदल रहा है "
लेखक: आलोक कुमार सिंह 
शीर्षक देख के कही आपने  यह तो नहीं सोच लिया की सरकार लोकपाल  के लिए मान गयी ,या फिर अब पेट्रोल और डीजल  के दाम नहीं बढ़ेंगे ,या फिर सरकारी स्कूलों में नियुक्त शिक्षक अब समय पर स्कूल आयेंगे ,या फिर किसी सरकारी दफ्तर का बाबू  अब रिश्वत नहीं लेगा या फिर कुछ और जिसकी आप आस लगाये बैठे थे |ऐसा कदापि न सोचियेगा क्यूंकि जब तक आम जनता की सोच नहीं बदलेगी तब तक ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला  है  |मै आपके समक्ष एक ऐसी  ही घटना का जिक्र करने जा रहा हूँ ,जहा मुझे लगा की हाँ - अब भारत बदल रहा है |
            अभी मै महानगर बस सेवा की एक बस में बैठा ही था की तभी  परिचालक महोदय ने मेरे पास आकार मुझसे टिकेट के पैसो की मांग कर दी |मै अपनी जेब से पैसे निकालते हुए ये सोचकर बड़ा खुश था की चलो कोई तो है जो अपना  काम ईमानदारी के साथ कर रहा है |
          अभी थोड़ी देर ही हुआ होगा की एक मेरे ही उम्र का  लड़का बस में चढ़ा| परिचालक ने फिर वही प्रक्रिया दुहरायी , मगर इस बार लड़के ने २० रु . देने की बजाय १० का नोट पकडते हुए बोल दिया " टिकट मत बनाना "| मुझे लग रहा था की  परिचालक मेरे विश्वास को नही  तोड़ेगा मगर ये क्या, अरे उसने तो १० का नोट जेब में डालकर अपने दांत दिखा दिए |दूसरों के गलती करने पर खुद को इतना निरीह और असहाय, आदमी खुद को भारत में ही महसूस कर सकता है |
                    अभी मै इस सदमे से उभर भी नही पाया था की  मेरी बगल वाली सीट पर बातों की जंग छिड़  गयी |उनमे से एक व्यक्ति जिसने सफ़ेद कुरता,पायजामा और गमछा डाल रखा था ने अपने लाल लाल दांतों को दिखाते हुए कहा " ई मर्दवा अब पर्धनियो (ग्राम प्रधान ) में मजा नाहीं रह गईल ४-५ लाख खर्चा करा तब जाके ५ साल में २० लाख रूपया कमा ,उधर फजीहत  उप्पर से |इधर मेरे मन में जो सवाल उठ रहा था की ४-५ लाख कैसे खर्च हो जाते है ,शायद उनके बगल वाला भी उसी से परेशान  था क्यूंकि दूसरा पहलू २० लाख कमाने वाला तो सबको पता है की आराम से हो सकता है | आख़िरकार वो पूछ  बैठा " अरे भैया ४-५ लाख कैसे खर्च हो जा ला ???"
"अरे भैया जवन चुनउआ भर सबके  घरे दारु मुर्गा भेज  के पड़ला ओकर का , जेकरे पास मोबाइल नहीं बा ओके मोबाइल चाही , औरो बहुत कुछ बा|"
ये सब सुनने  के बाद मेरे दिमाग में बस एक ही बात कौंध रही थी की क्या लोग १०-१५ दिन के दारू  मुर्गे के  लिए अपने आने वाले ५ सालों के  विकास की बली देने में जरा भी नहीं सोचते  |
क्या विकास की बात उनके दिमाग में एक बार भी नहीं आती ??उनकी बातें कुछ और देर सुनाने के  बाद मै अपने मोबाइल से गाने सुनने लगा |
कुछ देर बाद ही  बस गंतव्यस्थल  पर पहुँच गयी |बस से निचे उतारकर मैंने सामने लगे बोर्ड को पढ़ा  " वाराणसी बस सेवा " |
वह से कुछ दूर चलने के बाद मै  मानस मंदिर  जाने वाले ऑटोरिक्शा  की तलाश करने लगा, एक साथ दो मिल गए , एक रिक्शे का ड्राईवर जो की १७ -१८  साल का एक लड़का था , उससे किराया पूछा ? "३० रु." मैंने भी शुरू से ही मोल भाव सीख रखा था सो तपाक से बोला  "२० में चलना है तो चलो " आख़िरकार वो २५ में तैयार हो गया |मै रिक्शे में  बैठ गया  और वो चलने लगा |कुछ दूर जाने के पश्चात एक लड़की जिसकी उम्र करीब १९-२० रही होगी , मेरे बगल में आकर  बैठ गई |
     थोड़ी दूर जाने के पश्चात ऑटो वाला मुझसे पहला प्रश्न पूछ बैठा  "ये  IIT-JEE की परीक्षा बड़ी कठिन होती है न ?"
मैंने सोचा इसको IIT से क्या मतलब  ,मैंने कहा हां होती तो है|
वो बोला अरे वही 'JOINT ENTRANCE EXAM' |  मै सोच रहा था की जो बहुत से पढ़े लिखे लोगो को नहीं  पता वो ये ऑटोवाला बता रहा है, मैंने कहा हां  हां वही यार |
दूसरा सवाल " ये  IET ,lucknow कैसा कॉलेज है ?"
मैंने कहा ठीक है ,मतलब अच्छी है |
उसने  पूछा "आप क्या करते हो ?"
मैंने कहा B-tech कर रहा हू ,NIT से|
वो मेरी तरफ देखने लगा और बोला - "वो aieee वाला ?"
मैंने फिर से हाँ बोल दिया अब फिर से उसकी बारी  थी -मै iit की तैय्यारी कर रहा हू मै अवाक् था और चुप चाप  उसकी तरफ देख रहा था |
लो फिर से एक सवाल "अच्छा ये बताइए की जब मेंडलीव  ने पिरियाडिक टेबल बनाया तो उसमे कितने तत्व थे ?
मैंने कहा शायद ६० या ६५ ,कन्फर्म पता नहीं  उसने उत्तर दिया  ६३ |
मै चुप चाप उसकी तरफ देख रहा था और मेरे बगल में बैठी लड़की हँस रही थी , शायद मेरे ऊपर |
लीजिए एक और सवाल " newtons second law of motion  बताइए ?"
मैंने  ये दिखाने की कोशिश में की मै भी कुछ कम नहीं  और  तुरंत बोला F = ma "
लो वो ये क्या बोल पड़ा, जिसका मुझे डर था - की भौतिक विज्ञानं में फार्मूला से काम नहीं चलता पूरा बताइए  की " force is directly proportional to  rate of change of momentum"
मेरे बगल में बैठी लड़की  ठहाके लगाने लगी | मुझे थोडा  बुरा तो लग रहा था पर मन ही मन प्रसन्नता  भी हो रही थी की  चलो कोई तो है जो भारत को बदल रहा है |
हम मानस  मंदिर पहुँच चुके थे, मेरे निचे उतारते ही उसने मुझसे हाथ मिलाया और बोला " आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई |"
मैंने उसको ५० का नोट पकडते हुए बोला " मुझे भी|"
 उसने उसमे से मुझे ३० रुपये लौटा दिए , मैंने कहा अरे यार ५ और लेना है न , उसने बोला नहीं भैया आप से मिलकर बहुत खुशी हुई ,इस खुसी में ५ रुपये का कोई मोल नहीं |
 मैंने उससे पुछा तुम पढते कब हो ?? उसने बोला रात को , दिनभर ऑटो चलता हू और रात को पढता हूँ |
 मैंने उससे हाथ मिलाया और मंदिर की तरफ चल पड़ा , मुझे उसको गले लगाने का मन कर रहा था , पर अब वो जा चुका था ,शायद अपनी  माँ के लिए रोटी के पैसे जुटाने या अपनी बहन  के लिए एक चोकलेट के  पैसे जुटाने |
मै  खुश था की मैंने  उसमें  बदलते भारत की एक छवि देखि थी |


हाल-ऐ-दिल

  हाल-ऐ-दिल 
  कृति - मोहित पाण्डेय "ओम"    


उन्हें पाने की हसरत थी दिल में ,
पर वो भी आज गवां बैठे |
हमने उन्हें अपना समझा था ,
पर वो गैर समझ बैठे |
इतने भी बुरे न थे हम ,
जितना आप समझ बैठे |

दुनिया से दर्द छुपा रखा था ,
प्रेमाश्रु जो आज निकल बैठे |
आये थे वो यादें दफ़नाने ,
पर खुद को दफ़न हम कर बैठे |

सोचा था साथ चलेंगे,
भवसागर की कश्ती में,
मंझधार में उसने छोड़ दिया,
हम अपनी नांव डूबा बैठे |

अपने जीवन का हर एक पल,
उनके नाम जो हम कर बैठे |
उनसे मिलने की आस थी दिल में ,
वो भी आज जला  बैठे |

जीने की इच्छा थी मन में ,
वो भी आज बुझा बैठे |
प्रेम-दर्द की इन गलियों में ,
अपना सर्वस्व लुटा बैठे |

उस सुन्दर चंचल 'छवि' की खातिर,
क्या से क्या खुद को बना बैठे |
क्या खूब करम तेरा मौला ,
क्या हाल-ऐ-दिल बना बैठे |

Sunday 13 November 2011

व्यथित मन


व्यथित मन
लेखक :मोहित पाण्डेय “ओम” 
सहयोग :शिवम शुक्ल

तेजी से धड़क रहा दिल और साँसे फूल रही थी, चेहरा पसीने से तार बतर था और अंतर्व्यथा एवं निरासा से भरा हुआ मन, लग रहा था की जिंदगी की किसी लंबी दौड को हार आया हूँ, उठकर दीवार की तरफ देखा तो सुबह के ३:४० थे | हमेसा ८ बजे तक सोने वाला मै आज ब्रह्म मुहूर्त में ही जग गया था | बाहर ठंढी ठंढी बयार चल रही थी और खग-कुल अपने कलरव में लगे हुए थे | फिर से कम्बल के नीचे खिसक कर मै सोने की कोशिस करने लगा, लेकिन आँखों से नींद उड़ सी गयी थी और मन एक व्यथा से भरा हुआ था | शायद आज मैंने फिर वही सपना देखा था, जो कि कभी मेरे आँखों के सामने की हकीकत थी |
शायद वो जनवरी का महीना था और कड़ाके की ठंड पड रही थी | आज पिता जी के दोस्त ईश्वर अंकल हमारे यहाँ आने वाले थे | उनकी ट्रेन रात में १० बजे पहुँचने वाली थी | उन्हें लेने के लिए मै ९ बजे ही बाइक लेकर घर से निकल गया, स्टेशन पर पहुँच कर पता किया तो हमेशा की तरह भारतीय रेल विभाग की मेहरबानी से ट्रेन की २ घंटे देरी से पहुँचने की संभावना थी | मैंने फोन करके ट्रेन के बारे में पिता-जी को अवगत करा दिया एवं वही पर ओवर-ब्रिज के ऊपर बैठ कर गुलाम अली जी की गज़ल “हम तेरे शहर में आये है मुसाफिर की तरह” सुनने लगा | गज़ल खत्म हुई और मेरी नज़र सुनसान ओवर-ब्रिज़ से गुजरते हुए एक युवक (उम्र लगभग २० साल) एवं एक बालिका(उम्र लगभग १५ साल) पर पड़ी जो की हाथो में प्लास्टिक का थैला लिए, ठंड से सिकुड़ती हुई धीरे-धीरे उसके पीछे जा रही थी |
समय ११ बजने वाला था और ठंढ बढती जा रही थी | ठंडी हवाओं और गज़लों के ग़मगीन माहौल में एक खूबसूरत चेहरे की यादो के आगोश में खो गया | अचानक से ब्रिज़ पर हलचल और पुरानी यादें ओझल हो गयी | सामने से दौडती हुई वही लड़की, साँसे फूली हुई, कुछ पालो के लिए मै उसकी तरफ देखता सा रह गया | वह भी मेरी तरफ अजीब नज़रों से देखती हुई आ रही थी | उसकी ऐसी हालत देख कर मैंने उससे नज़रे मिलाना मुनासिब नहीं समझा | वो मेरे पास से गुजर चुकी थी | एक पल के लिए मेरी आँखे स्तब्ध सी हो गयी थी, वो ब्रिज की दीवार के ऊपर थी | मेरे मुंह से उसे रोकने के लिए कुछ लफ्ज़ निकल ही ना पाए थे की उसकी चीत्कार हवा में सुनाई दी | मै दौडकर नीचे आया, कुछ पल के लिए पूरा शरीर थरथरा उठा | मेरी नज़रों के सामने खून से लथपथ कराहती हुई वही लड़की पड़ी थी जो कुछ देर पहले बिल्कुल ठीक थी |
मैंने आर. पी. एफ. जवानो को सूचित किया | थोड़ी देर में काफी सारी भीड़ एकत्र हो गयी थी | आर. पी. एफ. प्रमुख ने मुझसे पूछताछ करने की कवायद की | अभी भी वो उसी जगह पर कराह रही थी | शायद उसे अस्पताल पहुचाने की हिम्मत कोई नही कर रहा था | मैंने प्रमुख से कहा “पूछताछ तो बाद में भी हो जायेगी पहले इसे अस्पताल ले जाना चाहिए”, उसने तपाक से जवाब दिया “तुम अगर इसे अस्पताल ले जा सकते हो तो ले जाओ, हम बिना नियम कानून के कोई भी काम नहीं कर सकते” | एक क्षण के लिए मै सोचने को मजबूर हो गया की क्या कोई ऐसा भी नियम-कानून है अपने संविधान में ???
तभी सरकार द्वारा जारी किये आपातकालीन नंबर १०० एवं १०८ याद आये | दोनों नम्बरों पर अनगिनत बार कोशिश की लेकिन दोनों में से कोई भी नंबर नहीं लगा | उस लड़की को वहा पड़े हुए लगभग एक घंटे होने वाले थे | समय देखा तो १:३० होने वाला था | ईश्वर अंकल की ट्रेन आकर जा चुकी थी | मोबाइल की घंटी बजी, पिता-जी का फोन था | ईश्वर अंकल घर पहुँच चुके थे | मैंने सारी घटना पिता-जी को बताई | उन्होंने तुरंत मुझे घर लौटने को कहा | कुछ लोग उस लड़की को लेकर अस्पताल जा रहे थे | मेरे मन को कुछ तसल्ली हुई और बाइक स्टार्ट कर के मै घर की तरफ रवाना हुआ | लेकिन बार बार मेरी नजरो के सामने वही चेहरा आ रहा था | घर आकार उस रात मै सो नहीं पाया |
सुबह अंकल के साथ चाय पीते हुए अचानक TV पर मेरी नजरे ठहर सी गयी थी, अस्पताल के बेड पर कराहती हुई लड़की और TV की हेड-लाइन्स में एक और लाइन जुड गयी थी “अज्ञात बालिका ने प्रेम प्रसंग के चलते स्टेशन के ओवर-ब्रिज से कूद कर जान देने की कोशिश की” | अभी तक जिसके लिए मन में करुणा के भाव थे नफ़रत में तब्दील हो गए लेकिन मन में कुछ प्रश्न अभी भी कौंध रहे थे- आखिर वो युवक कौन था? उसका प्रेमी या और कोई?
आखिर इतनी आसानी से कोई किसी के लिए अपने जान क्यूँ दे देता है? फिर भी मेरा मन ऐसा मानने को कतई तैयार नहीं था | आखिर कोई ऐसी वजह जरुर होगी कि उसके सामने खुद को मारने के अलावा कोई और रास्ता नही था | मैंने अपने दोस्त रौशन को फोन किया और अपने मन की व्यथा बताई | हम दोनों रिपोर्टर बन कर उसके मन का काँटा जानने के लिए निकल पड़े |
एक बार फिर से निकल पड़ा था मै ,शायद फिर से एक बहुत बड़ी भूल करने | कहते है उत्साह और जिज्ञासावश किये गए काम में सम्पूर्णता और आनंद की अनुभूति की ज्यादा आशाएं होती है | मेरा मन भी जिज्ञासा के पाश में ग्रसित था, लेकिन दिल का एक वह कोना जो की हमेशा सच के लिए ही धड़कता है, उससे एक टीस सी आई थी की शायद आज मै एक ऐसे रास्ते से जा रहा हूँ जहाँ के चौराहे पे अकेले मै और सारे लोग घ्रिनात्मक बाणों की वर्षा मेरे ऊपर कर रहे है |
शायद मै आज उस गलियारे पर खड़ा था जहाँ मेरे सामने प्रश्नों की मालायें थी | और उनका प्रत्युत्तर देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं थे | व्यथित होकर मै मूक खड़ा था | कहते है हर एक मूक भाव में भी कुछ रहस्य छिपे होते है | लेकिन ये भाव तब तक प्रस्फुटित नहीं होते जब तक उन पर दर्द भरी यादों को अपनी चंचल लहरों के आँचल में संजोये हुए कोई प्रवाहिका उस मूक पत्थर को रेत में न बदल दे | उम्र के बढते पड़ाव में बचपन की यादे और भी गहरी होती जाती है | बचपन में की हुई गलतियां, झूठ बोलना और फिर डांट पड़ना | आज भी उन बचपन के दिनों की यादें दिल को भाव विभोर कर देती है | पूरी सड़क को अपने आगोश में लिए हुए कुहासा ऐसा लगता था की मानो या तो सूर्य देव कुपित हो गए है या फिर राहु केतु के अलावा उन्होंने किसी और से भी बैर मोल ले लिया है | ऊनी शॉल से अपने आप को जकड़े हुए हम रास्ते के अधवारे पर थे | ठंडी हवाओं और ओंस की बूंदों के साथ खेलते हुए आज वो दिन मेरे दिमाग में ठंढी हवा के झोको की तरह समा गया | हम लोग अपने गाँव को छोड़कर शहर आ रहे है | तब मेरी उम्र लगभग ८ साल रही होगी | गाँव के उस प्राकृतिक और मनोहर वातावरण के बीच मेरे पिताजी शायद हमें नहीं रखना चाहते थे, शायद इसलिए कि वो वातावरण भी प्रदूषित था | शहरो के ध्वनि, जल, वायु जैसे प्रदूषणों से तो वह मुक्ति थी लेकिन गाँव के समाज में ऐसे प्रदूषण थे जो कि खतरनाक ही नहीं बल्कि मानुषी जीवन को पाशविक जीवन में बदल देते है | वहां अशिक्षा, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, लड़कियों का शिक्षा से वंचन, बंधुआ मजदूरी तो थे ही साथ ही साथ एक सबसे बड़ा सामाजिक कलंक ‘अछूत-प्रथा’ थी | वैसे तो ये कानून और सरकारी कागजो में गाँधी जी के असहयोग एवं पूर्ण-सहयोग आंदोलनो के साथ संविधान के कुछ अनुच्छेदो में दफ़न हो गयी थी | गाँधी जी ने एक नाम दे दिया ‘हरिजन’ (भगवान के लोग) | इसीलिए अब गाँव में अछूत बस्ती को ‘हरिजन बस्ती’ कहकर जाना जाता था | केवल नाम बदला था और कुछ नहीं | एक तरफ हम सवर्णों की बस्ती थी और नीचे की तरफ हरिजन बस्ती थी | महा मणि मनु द्वारा किया गया वर्ण विभाजन आज भी उसी तरह चला आ रहा था | उनके बच्चों को हमारे साथ खेलने की, बात करने की तथा स्कूल की कक्षा में पास बैठने की अनुमति नहीं थी | अगर वो ऐसा करते हुए पाए जाते थे तो उन्हें स्कूल से निष्काषित कर दिया जाता था | लेकिन बच्चो के दिल तो इन सब से अनजान होते है | भगवान हमें कभी भी किसी के लिए भी दिल में नफ़रत देकर जन्म नहीं देता | तब तो हमारा ह्रदय शुद्ध और पाक होता है | और ज्यो ज्यो हम बड़े होते है हमारे सामाजिक ठेकेदारों द्वारा रोपित नफ़रत का पौधा एक बड़ा वृक्ष बन जाता है |
उसी बचपन के वसंत में फलते फूलते हुए कुछ फूलो से दोस्ती बनायी थी | मै, राजू, छवि, शिवा और अमित बाल जीवन की फुलवारी में लड़ते झगड़ते मस्त रहते थे | इन सब में मेरा अच्छा दोस्त राजू दूसरी बगिया का था, वो ‘अछूत’ था | इस बात का पता हमे तब चला जब छवि के चाचा जी ने हम सबको उसके साथ खेलते हुए देख लिया था | उस दिन हम सबको बहुत दांत पड़ी | इस के बाद से हमने राजू को अपने मोहल्ले के आस पास भी नहीं देखा | हम सब समाज के ऐसे रीति रिवाजों एवं बंधनों से बहुत दुखी थे |
आखिर एक दिन मुझे भी उस बगिया के मनुहारो को छोडकर शहर आना पड़ा | उस दिन छवि को साथ लाने की जिद में बहुत रोया था मै | दस सालो तक मुझे गाँव नहीं जाने दिया गया था | इतने बड़े अंतराल के बाद भी मै अपने दोस्तों को भूल नहीं पाया था | छवि के साथ बिताए हुए बचपन के हसते –खेलते दिन जेहन में घर कर जाते है शायद छवि की दोस्ती ,छुपा-छुपी का खेल और यादें एक चाहत में बदल गयी | बचपन की दोस्ती से ये चाहत का सफर मैने कैसे तय किया आज भी नहीं जानता | आखिर इतने बड़े अंतराल के बाद उससे मिलाप का समय अ गया था | एक पारिवारिक समारोह में शामिल होने के लिए आज मै पिता जी के साथ गाँव जा रहा था | उस शाम को हम लोग गाँव में थे | जगमगाती लाइटें, बेजोड सजावट परिवारजनों एवं रिश्तेदारों के बीच मै केवल एक चेहरे की तलाश में था | थोड़ी देर में चाय की ट्रे लिए हुए एक चेहरा आया, मै उसकी तरफ देखता ही रह गया | वो चाय देकर चली गयी मेरी हालत का अंदाजा लगते हुए पिता जी ने बताया की वो तुम्हारे बचपन की दोस्त छवि थी | छवि इतनी बड़ी हो चुकी होगी ऐसा तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था, आखिर मै भी तो अठारवी में प्रवेश कर चुका था | मेरा दिल उससे मिलने के लिए बेताब था | पूरे समय मेरी नजरें उसे खोजती रहीं पर वो दुबारा नही दिखी | सोचा था पूरे समय उसी के साथ बैठूँगा उसके बिना बिताए हुए दस साल अपने दिल की चाहत, अरमान आज सब कह डालूँगा शायद खुदा को कुछ और ही मंजूर था | पिता जी के किसी जरुरी कम की वजह से हमें रात में ही लौटना पड़ा | लौटते हुए मै आज ऐसा महसूस कर रहा था की कोई श्वेत धवल आकाश गंगा क्षण भर के लिए प्रकट होकर हमेशा के लिए उस शून्याकाश में विलीन हो गयी हो |
कल से ही मै काफी उदास था शायद माँ से अपने दर्द को छुपा पाना मुश्किल ही होता है | माँ के पूछने पर मैंने छवि से न मिल पाने की सारी व्यथा बता डाली | माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुयें आश्वाशन दिया की हम छवि से मिलने जरुर चलेंगे | लेकिन आज छवि से मिलने की तमन्ना उसके लिए संजोये हुयें सपने एक क्षण में खाक में मिल गए थे | गाँव से खबर आई थी की लाखन सिंह की बेटी छवि ने जहर खाकर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली | ये खबर सुनते ही मै बिल्कुल टूट सा गया, आँखों के सामने पूरी तरह अँधेरा छा गया, अपने सपनो को इस तरह टूटते हुए देखने की हिम्मत मुझमे नहीं थी |
उस खुद-कुशी का कारण जानने की मैंने बहुत कोशिश की लेकिन कोई भी मुझसे उसके बारे में बात करने के लिए तैयार ही नहीं था | कुछ साल पहले उसे पाने का जो सपना संजोया था वो आज भी जिन्दा है फर्क बस इतना है की ये अब कभी पूरा नहीं हो सकता है | आज भी उसकी यादों में तन सिहर उठता है और आँखों में आंसू आ जाते है | रुमाल से अपने आंसुओ एवं ओंस की बूंदों को पोछते हुए हमने अस्पताल के मुख्य द्वार में प्रवेश किया |
सुबह और ठण्ड का मौसम होने की वजह से अस्पताल में एक ख़ामोशी सी थी | श्वेत कपड़ो में ढकी हुयी नर्से पूरी तन्मयता के साथ रोगियों की सेवा में तत्पर थी | कुछेक वार्ड पार करते हुए हम वार्ड ५ बेड नंबर ३७ के पास पहुंचे | अस्पताली कम्बल में लिपटे हुए सिकुड़ी सी वो करवट लिए पड़ी थी | शायद वो सो रही थी | हम बिस्तर के बगल में पड़ी बेंच पर बैठ गए | अचानक उसने करवट बदली और हमारी तरफ घूर कर देखा | उसकी आँखों में मेरे लिए नफ़रत थी या कुछ और मै आँक नहीं पाया | रोशन ने उससे बात करने की कोशिश की पर अहसास हुआ की वो हमसे बात ही नहीं करना चाहती थी | कुछ क्षण के लिए हम शांत होकर बैठ गए | फिर रोशन ने उससे अखबार में छपी खबर के बारे में पूछते हुए उससे कहा क्या तुम किसी के साथ घर से भागी थी? क्या वो लड़का जो तुम्हारे साथ था तुम्हारा प्रेमी था? क्या तुमने प्रेम-प्रसंग के चलते आत्म-हत्या करने की कोशिश की ?
रोशन के ये प्रश्न उसके दिल में तीर की भांति चुभे, उसकी आँखों के समंदर से कुछ मोती बाहर आ गए थे | न चाहते हुए भी उसने अपनी आप बीती हमें बतानी शुरू की | उसके पहले ही शब्द हमारे ह्रदय में कौंध गए | उसने अपना नाम निशु बताया |
भैया शायद मै मर जाती तो अच्छा होता अब जिंदगी जीने के कोई वजह मेरे पास नहीं रह गयी, दुःख भरे तीरों ने मुझे छिन्न-भिन्न कर जर्जर सा कर दिया है | एक जिन्दा लाश की तरह जिसका इस दुनिया में कोई नहीं ,आखिर मै कब तक जिन्दा रहती | जबसे होश संभाला माँ का तो चेहरा ही नहीं देखा, बचपन में ही वो मुझे और मेरे भाई को पिता जी के सहारे छोड़कर चल बसी थी | पिता जी एक पत्थर की खदान में काम करते थे | खदान मालिकों का पूरा गुस्सा वो रात में शराब पीकर हम दोनों बहनों पर उतारते थे | लेकिन एक दिन हमारे सर से बाप का साया भी उठ गया | अब इस पराई दुनिया में केवल मै और मेरा भाई रह गये थे | पिता जी की जगह अब भाई ने खदान में काम करना शुरू कर दिया | लेकिन अचानक एक शाम गाँव के कुछ सवर्ण लोग चिल्लाते हुयें घुसे और भाई को घसीटकर बहार ले गए ,वो एक आखिरी क्षण था कि जब मैंने भाई का चेहरा अंतिम बार देखा था |
यह कहते हुए वो फूट-फूट कर रो पड़ी | थोड़ी देर बाद उसकी सिसकिया बंद हुई |आखिर उसके भाई के साथ क्या हुआ हम जानना चाहते थे | निशु ने आगे बताना शुरू किया –‘भाई को तेजाब डालकर पूरी तरह झुलसा कर मर डाला गया’| उसके भाई को इतनी बेदर्दी से क्यूँ मारा गया ये कारण जानने की हिम्मत हमसे न हुई | वो बोल रही थी और हम सुनते जा रहे थे | भाई की मौत के बाद गाँव से उसे भी निकाल दिया गया | एक पड़ोसी एवं भाई के अच्छे दोस्त बिरजू के साथ उसके विश्वास पर की शहर में कुछ कम मिल जायेगा, मै शहर आ गयी | उस रात मै और बिरजू ओवर-ब्रिज पार कर के स्टेशन पर पहुंचे थे | बिरजू टैक्सी लेने के बहाने स्टेशन के बाहर गया | मैंने देखा की वो राक्षस जैसे शरीर वाले भयानक काले लोगो से कुछ बाते कर रहा है | चुपके से जाकर मैंने उनकी बाते सुनी |
बिरजू मुझे दलालो के हाथो बेचना चाहता था | जिसके ऊपर मेरा भाई सबसे ज्यादा विश्वास करता था, आज उसके ऐसे मन्सूबे देखकर अब पूरी दुनिया से ही मेरा विश्वास उठ गया था और बिना कुछ सोचे हुए विष का घूंट पिए मैंने छलांग लगा दी | उसकी आंखे नम थी | उसकी पूरी कहानी जानने के बाद भी एक प्रश्न मेरे मन में कौंध रहा था आखिर तुम्हारे भाई को उन लोगो ने मारा क्यूँ ? शायद ये प्रश्न उसे और इसका उत्तर मुझे स्तब्ध करने वाला था | उसने बताया की उसका भाई राजू और गाँव के लाखन सिंह की बेटी छवि एक दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करते थे | छवि ये जानते हुए भी की राजू अछूत है, उनका रिश्ता कभी भी समाज स्वीकार नहीं करेगा फिर भी चोरी-छुपे राजू से मिलती थी | एक दिन ये सच गाँव में उजागर हो गया और मेरे भाई को मोहब्बत की सजा मिली | दो दिन बाद ही छवि ने भी जहर खाकर खुद-कुशी कर ली |
एक क्षण के लिए मेरे दिल ने धडकना बंद कर दिया, शरीर में एक तरह की सुन्नता का अहसास हुआ और दिमाग चकराने लगा | इतने दिनों से छवि की खुद-कुशी का रहस्य जानना चाहता था जो आज मेरे सामने था, जानकर शरीर पसीने से तरबतर हो गया था | शायद ये रहस्य –रहस्य ही रहता तो ही बेहतर था लेकिन आज जिंदगी का एक सच मेरे सामने था | “जरूरी नहीं कि जिसे हम चाहे वो भी हमें चाहे, जिसके लिए हम सपने बुने वो भी हमारे सपने देखे, जिससे हम प्यार करे वो भी हमें प्यार करे” | अपना परिचय बताए बिना कि मै भी राजू के बचपन का दोस्त हूँ, एक व्यथित मन लेकर घर वापस आ गया |
घर आकर मैंने माँ को सब कुछ बताया दूसरे दिन मै माँ और पिता जी निशु को लेने अस्पताल पहुंचे | पिता जी और माँ को देखकर वो पहचान गयी | हम निशु को लेकर घर आ गए |घर में उस दिन बहुत खुशी थी| निशु के आ जाने से पूरा घर हंसी –खुशी से ओतप्रोत था| आखिर घर को एक बेटी एवं मुझे एक प्यारी सी बहन मिल गयी थी |
घडी की तरफ नजर उठाकर देखा तो सुबह के ७ बजे हुए थे | आज पिता जी के साथ आफिस जाना था तभी चिडियों सी चहचहाती हुई निशु कमरे में आई “भैया पापा नीचे इंतजार कर रहे है जल्दी जागो नहीं तो पानी डाल दूँगी” |