Saturday, 21 January 2012

'प्यार का दूसरा पहलू'


'प्यार का दूसरा पहलू'
कृति-'जीतेन्द्र गुप्ता'

जब दिल ये उदास होता है, एक तेज कसक सी उठती है|
वो  खट्टी  मीठी  यादें, बड़ी  तेज  हृदय  में चुभती है|
ये शीतलहर की है ठंडक और है ये बदन रजाई बिन
इस प्रेमभंवर में फसते ही मौत है आ गई बुलाए बिन|
कितना समझाया इस दिल को पर ना माना ये रत्ती भर,
कितना रोका इन अश्को को पर बह आये ये गालों पर|
कितना मासूम था दिल मेरा तूने क्यों इसको तोड़ दिया,
जैसे तपते सूरज के नीचे सहारा मरु में छोड़ दिया|
कितना खुश था मैं दुनिया में क्यों दुःख से नाता जोड़ दिया|
कितना चंचल भंवरा था मैं ,पंख तूने क्यों मेरा तोड़ दिया|
एक साफ़ स्वच्छ मष्तक को क्यों इतना तगड़ा नासूर दिया|
एक भोले भाले मानुष को यूं बीच भवंर में छोड़ दिया|
क्यों सपने झूठे दिखलाए जब उनमें आग लगानी थी,
क्यों बहलाया मुझको झूठे जब आखिर लाश उठानी थी||
एक सलाह -
" इस प्रेमभंवर में मत पड़ना , जीते जी नरक भुगा देगा 
 भोली सूरत पर मत पड़ना , जीवन को नरक बना देगा "  

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