Wednesday, 29 February 2012

::कुछ सीख लों::

कृति : मोहित पाण्डेय"ओम"


तुम मुस्कुराना सीख लो,
उन अपाहिजो को देखकर|
दोष किस्मत को देना छोड़ दो,
कटे पंख से उड़ते परिंदों को देखकर|

बाजुओ में जोर भरना सीख लो,
जाबांजो को सीमा में लड़ते देखकर|
तुम मुस्कुराना सीख लो,
उन अकिंचनो को देखकर|

समय की पहिचान करना सीख लो,
कोयले से हीर बनता देखकर |
उन्नति पथ पर चलना सीख लो,
अविरत प्रवाह सरिता कि देखकर |
अमर प्रेम करना सीख लो,
जल कर मरे परवाने को देखकर |
अपने प्रण पर रहना सीख लो,
अविचल खड़े हिमालय को देखकर |

खुद जलकर प्रकाश करना सीख लो,
जलते दीपक को देखकर |
दुनिया को रौशन करना सीख लो,
आसमां में तपते सूरज को देखकर |
मानवता कि खातिर खुद की कुर्बानी देना सीख लो,
महर्षि दधिची के अस्थि-बलिदान को देखकर |

माँ भारती के पूत अब, गर्व से सर उठाना सीख लो |
दुश्मन की च|ल को अब, बेनकाब करना सीख लो|
मुट्ठियों के जोर से अब, भूचाल लाना सीख लो |
देश-प्रेम की खातिर, मौत से भी दिल लगाना सीख लो |

Sunday, 26 February 2012

काश! कुछ पल बटोर लेते...

काश! कुछ पल बटोर लेते,
काश! कुछ पल बटोर लेते,
काश! कुछ पल बटोर लेते,
जहाँ हम रहते थे कभी,
उस जहां कि यादो से,
काश! कुछ पल बटोर लेते|

खुश रहकर भी खुश नहीं है,
जो हम थे वही सही है,
लम्हे जो सामने मुस्करा जाते थे,
उन लम्हों में से,
काश! कुछ पल बटोर लेते|

यादो को साथ लेकर,
नयी यादो के लिए चलना,
थोडा मुस्कराना,
रोकर मन को तसल्ली दिलाना,
दोस्तों के सामने चेहरे पर हंसी लाना,
फिर,
अगले पल ही सोचना कि,
उन बीते लम्हों में से,
काश! कुछ पल बटोर लेते|

-मंटू कुमार

Saturday, 25 February 2012

::चंद दोहे::

कृति :: मोहित पाण्डेय"ओम"
१. प्रेम यहाँ सबसे बड़ा,  सबसे  रखियों  प्रेम |
प्रेम में शबरी गृह गए, तज कर राज के नेम ||
२. प्रेम बिना इस जगत में,मोसे रहा न जाय |
प्रेम सुधा कि कुछ बूंदे, ओम को देउ पिलाय ||
३. कलम लेखनी शाश्वत, दुर्लभ  साँचो मीत |
मीत गयौ कुछ न रहेउ, बची कलम की प्रीत ||
४. साकी अब तो मान ले, या मनवा कि बात |
  जी  भर जाम पिलाय  दे ,  जागूँ  पूरी  रात  ||
५. साँस हमारी थम  गयी,  गयो  अँधेरा छाय |
  पिया मिलन के वास्ते, यम ने लियो बुलाय ||
६. कलम बेहया हो गयी, बिसरी छवि की नाइ|
किया जिकर मनमीत का, हर महफ़िल में जाइ||
७.छवि ने घोटी भंग जब, मदिरा दियो मिलाय| 
   प्रेम-नशा ऐसा चढा, चतुर्दिक छवि दिखाय ||
८. प्रेम  रंग  में  रंग गए ,  उसके  सारे  अंग |
    सकुचाई मनमीत को कियों ओम में तंग ||
 

::होली विशेष ::

कृति - मोहित पाण्डेय "ओम"

रोज यही दोहराते है कि,
हमने उनको भुला दिया |
दुनिया वालो को अब हमने,
दिल का हाल बताना छोड दिया|

उनकी खातिर अब न पियेंगे,
हमने मैखाने जाना छोड दिया|
इश्क-ए-समंदर थाह लगाना,
यारों हमने दिल में उतरना छोड दिया|

होली की रूत आई जब,
उसने ने हमको बुला लिया|
उससे मिलवाने की खातिर,
विधिना ने क्या खूब प्रपंचन रचा दिया|

जीवन के रंग में रंग जाओ,
सबने हम दोनों को अकेले छोड़ दिया|
पर कैसे प्रेम-रंग डालूं उस पर,
जब हमने प्रेम में खुद को रंगना छोड़ दिया|

यारों मैखाना घर में ही बनाकर,
अब हमने मैखाना जाना छोड़ दिया|

Friday, 10 February 2012

बेचैन दिल

दिल का कहा सुना था ,तभी तो ये बेचैनी होती है,
कौन कमबख्त होना चाहता था, अपनी दिलोजाँ से दूर|

दूर तो हुआ था उन सपनो को पूरा करने को, जिसे हमने साथ देखे थे,
सोचा न था की उन हसींन सपनो के बदले , आँखों की ये नमी मिलेगी|

अरे इन  आँखों की नमी को तो कोई भी सुखा देगा,
मगर इस दर्द भरे दिल में लगी आग को कौन बुझा पायेगा||

                                                                     -प्रेमराज

Thursday, 9 February 2012

दहेज:बिकता नर

 दहेज:बिकता नर

कृति -मोहित पाण्डेय"ओम "             



इस दहेज रुपी दानव ने,
बेटी का जीवन छीन लिया|
इसी दहेज के दानव ने,
मानव मूल्यों का अवकलन किया|

नाग-पाश में फसकर,
तुम मानवता से गिर जाते हो|
मै मानव हू भूल कर यह,
पशुओं की भाति बिक जाते हो|

भृष्ट समाज में अंधे होकर,
विविध आन्दोलन करवाते हो|
खुद की संतान के बैरी बनकर,
धर्म और राष्ट्र भक्ति का पाठ पढाते हो|

विविध प्रपंचं करके खुद,
महापुरुष कहलाते हो|
उस अबोध को तो बचा न सके,
युग परिवर्तन की बात चलाते हो|

नस के पानी को खून समझकर,
बदलाओं की झूठी हवा उड़ाते हो|

अगर अभी रगों में खून,
और मस्तक पर तेज बाकी है|
आओ साथ खड़े हो मेरे,
मन में ऐसा संकल्प करो|

माँ की प्यारी बेटी का डर,
दहेज का दानव खत्म करो|
खुद परित्याग दहेज का कर,
बेटी के सपनो में रंगों को भरो||

दिल की तड़प

तेरी झूठी नफरत की एहसास को भी वो प्यार समझता रहा,   
तेरी उन मीठी गलियों को भी वो इश्क का जाम समझता रहा|

तेरी ठुकराने का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था कि,
न चाहते हुए भी उसे तुम्हे बेवफा समझना पड़ा|
मगर ये कैसी बंदिश है, ये कैसी मजबूरी है,
कि मेरे प्यार की  चिता जला किसी और के साथ बैठ,
तुझे अपना हाथ सेकना पड़ा|

शायद तुम से अच्छी तो चिता की वो लकड़ियाँ ही निकली,
जो इस दर्द भरे दिल के प्यार को जला न सकी|

लेकिन फिर भी तेरे इंतजार में ये दिल आज  भी तडपता  है|
अब तो इंतजार है उस जहाँ  का, जब न वो अदालत तेरी होगी,
न वो शहर तेरा होगा सिर्फ इन्साफ की इबादत मेरी होगी||
                                                                        प्रेमराज कुमार

Wednesday, 8 February 2012

दिल की चाह


उसकी एक झलक देखने की चाह ने दीवाना हमे इस कदर किया......
कि इस जिंदगी की तेज रफ़्तार में भी  रुकने पे मजबूर किया !!!!!!!!

बीच राह में रुककर किया था हमने उसके दीदार का इंतजार........
पर फिर भी उस जालिम बेवफा ने किया मिलने तक से भी इंकार!!!!!!!!!!!

अरे गम तो हमे इस बात से नही की वो बेवफा निकल गयी ............
दिल तो बेचैन इस बात से है कि हमारी वफ़ा में क्या कमी रह गयी !!!!!!

                                                                                 -प्रेमराज कुमार