Monday, 5 March 2012

“चाँद की चाँदनी नहीं देखी”

कृति – आकृति चौबे

कितने दिन हो गए,
हमने चाँद की चाँदनी नहीं देखी|
यू तो हर दिन के बाद रात होती है,
हर रोज चाँद भी दिखता था खिड़कियों से,
सारा जहाँ नहाता था उसकी चाँदनी में,
हर आशिक अपनी महबूबा को खोजता था उसमे,
हर माँ अपने लाड़ले को दिखाती थी अक्स उसका|
पर कितने दिन हो गए,
हमने चाँद की चाँदनी नहीं देखी|

आज अरसे बाद हमें भी दिखी चाँद की चाँदनी,
ये कैसा असर था हमपे की,
चाँद था पर चाँदनी नहीं|
सांसे थी पर जिंदगी नहीं,
एहसास था पर इकरार नहीं|
इंतजार था पर ऐतबार नहीं,
ये कैसा असर था हम पर की,
चाँद तो देखा मगर चाँद की चाँदनी नहीं देखी|

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